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शाश्वत ! वह भी कुछ है क्या? अज्ञात वस्तु का अलौकिक रंग होता है। शाश्वत पद की नई कल्पना ने विकल्पों से आकुल राजाओं के मन में नई उमंग का संचार किया। प्रभु की स्निग्ध, मधुर, मृदु वाणी फिर कानों में गूंजी
मेरा राज्य विराट् अलौकिक, जहां न इच्छा का लवलेश, युद्ध और संघर्ष विवर्जित, नहीं क्लेश का कहीं प्रवेश। ममता, समता से परिवृत्त है, नहीं दृष्ट सुख-दुःख का द्वंद, रात दिवस का चक्र नहीं है, सारी घटनाएं निर्द्वन्द्व । सब ज्ञाता, सब द्रष्टा कोई, नहीं हीन, ना कोई दीन, सलिल सुलभ सबको, ना कोई प्यासी है पानी में मीन। इस सुराज्य में बन जाता है, जो अबंधु वह सहसा बंधु, लोकराज्य की महिमा देखो, कैसे बनता बंधु अबंधु? ललचाता है पुष्प किन्तु वह पल में ही मुरझा जाता, चिरजीवी हैं चुभन जगत में, कांटा जागृति बन जाता। परम अस्त्र है त्याग अनुत्तर, प्रश्न न कोई रहता शेष, भोग शेष की गंगोत्री है, जग में केवल त्याग अशेष ।
___सर्ग 12, पृ. 200-202 राजाओं की अतंश्चेतना जागृत हुई। बद्धांजलि वे सब प्रभु-चरणों में समर्पित हुए
सोच लिया हम नहीं लडेंगे, नहीं झकेगा पावन शीश, पथ आलोकित हो सन्मति से, ईश ! मिले वैसा आशीस। निर्विकल्प हम भगवन ! केवल आत्म-साधना एक विकल्प, आत्मा की गरिमा के सम्मुख, राज्य हमें लगता है अल्प। आत्मा का साक्षात् करेंगे, दृढ़ निश्चय है, दृढ़ संकल्प, पूर्ण समर्पण ही होता है, कल्पवृक्ष चिन्तामणि कल्प | भूमि ने देखा, अंबर ने देखा जड़-चेतन संघर्ष, आखिर जय की वरमाला ने, देखा चेतन का उत्कर्ष ।
सर्ग 12, पृ. 202-203 अट्टानवे नृप-भ्राता दीक्षित हो । साथ ही बहिन सुन्दरी भी । घटनावली के इस पटाक्षेप पर सभी ने सुख की सांस ली। मगर युद्धों की आदमी की नियति पर पटाक्षेप नहीं हुआ। भरत अयोध्या लौटे। वहां जनता के मन में विजयोल्लास की उत्ताल उर्मियाँ नृत्य कर रही तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001
NI MI MITIAN 81
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