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ऋषभ-पुत्रों में कलह हो, मान्य मुझको है नहीं, चक्र रूठे, रूठ जाए, बन्धु तो वह है नहीं। सर्ग 14, पृ. 224 मंत्रीमौन रहना श्रेय है यह, देव ! पहले कह चुका, वेगमय है सलिल धारा, तीर बन मैं रह चुका । शांति का मैं पक्षधर हूँ, किन्तु उसका अर्थ है, एकपाक्षिक बंधुता का, अर्थ सिर्फ अनर्थ है। स्नेह की सरिता प्रवाहित, एक ओर अशेष है, फूल परिमल रहित अवरज, दर्प का आवेश है। देश और विदेश में यह बात अति विख्यात है, भरत से भी बाहुबली का, बाहुबल अवदात है। जनपदों को जीतने में, शक्ति का व्यय क्यों किया? क्या जलेगा चक्रवर्ती, पीठ का स्नेहिल दिया? बाहबलि को जीतने का, स्वप्न क्यों देखा नहीं, शेष सब नृप बिन्दु केवल, एक है रेखा यही। सर्वजित् की पद-प्रतिष्ठा, देव ! आज अपूर्ण है, पूर्ण का संकल्प हो यह, सुरभि वासित चूर्ण है। स्तोक-सा वक्तव्य देकर, मौन मंत्री हो गया, अर्थ का गांभीर्य देकर, शब्द नभ में खो गया। भरततर्क है बलवान केवल, भावना का द्वन्द्व है, शब्द से व्यवहार चलता, कौन फिर निर्द्वन्द्व है? बाहबलि की नम्रता में, उचित ही संदेह है, उचित है आरोप तेरा, एकपक्षी स्नेह है। ज्येष्ठता का भूमि-नभ में, सर्वदा सम्मान हैं, अनुज के व्यवहार में तो, झलकता अभिमान है। प्रणत है षट्खण्ड भूपति, अनत केवल भ्रात है,
रात कैसी सब दिशाओं में प्रभास्वर प्रात है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 MINS
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