Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 85
________________ I दृष्ट पर अदृष्ट के निबन्ध को कोई नहीं पढ़ पाता । ऋषभ ने मनुष्य के लिये अहिंसा की आचार-संहिता लिखी, चक्र-रत्न ने हिंसा का अध्याय खोला। एक अचेतन शस्त्र ने युद्धों की विभीषिका को मनुष्य की नियति में ढ़ाल दिया । चक्र-शक्ति से उत्साहित भरत के मन में दिग्विजय का मीठा सपना लहराया। विश्व विजय हेतु सेना का प्रयाण हुआ। एक के बाद एक सब राज्य आत्म समर्पण करते गये। उसके साथ भरत की राज्य विस्तार की लालसा भी बढ़ती गई । हिमगिरि - रे-भाल के उत्तर व दक्षिण में ऋषभ के पालित पुत्र नमि और विनमि दोनों के अपने-अपने राज्य थे। भरत ने उनके पास पत्र भेजा - पद तले अगर भूमि चाहते हो तो सिर पर चक्रवर्ती की छाया स्वीकार कर लो। नमि-विनमि के पास विद्या का बल था । वे नहीं झुके । बारह वर्षों तक युद्ध चला पर जय और पराजय दोनों के पल्ले रीते रहे। इस धरती पर युद्ध किस ग्रह का अभिशाप है, यह सचमुच अन्वेषणीय है । अन्ततः विद्याधर भ्राताओं ने संधि का प्रस्ताव भेजा । नमि ने भरत को असीमित उपहार दिये । विनमि ने भगिनी को उसके साथ प्रणय सूत्र में बांधा । भरत वापस अयोध्या लौटे। 1 मंत्रीश्वर ने राजा भरत का चक्रवर्ती सम्राट के रूप में अभिषेक करने हेतु समारोह का आयोजन किया। राजभवन का वैभवशाली स्फटिकोपम आलय स्वल्प समय में सजाया गया। भरत सिंहासन पर आसीन हुये । आगन्तुक नृप और श्रेष्ठिगणों की उस सभा में सम्राट भरत का एक भी सहोदर उपस्थित नहीं था । महिमामय आयोजन में बंधुगण का कोई सहयोग नहीं? सब निरुत्तर और मौन । दूत अट्टानवे नृप-भ्राताओं के पास पहुंचे। उन्हें सविनय संदेश दिया- सम्राट भरत को वसुधेश के रूप में स्वीकार करो। यदि नहीं तो फिर रणभूमि ही विकल्प है। बंधुगण ने सहचिन्तन कर उत्तर दिया — हमें राज्य - लक्ष्मी पिताजी का वरदान है, भरत का दान नहीं । जो राजा प्रणत हुये हैं, वे बलहीन हैं, मगर हम लड़ने को तैयार हैं। भरत ही अपनी तृष्णा को उपशांत करे। यही काम्य है और यही इष्ट है । राजदूतों को विदा कर भ्रातागण ऋषभ प्रभु से निर्देश लेने हिमगिरि की ओर प्रस्थित हुये । चरण कमलों में प्रणत होकर समवेत स्वर में बोले -भरत द्वारा प्रस्तावित उभय विकल्प सेवा अथवा समरांगण । साम्राज्य विस्तार भरत का संकल्प है और हमारा संकल्प है सेवा केवल उसकी जो निर्विकल्प है। प्रभुवर ! आपने त्याग-धर्म का उपदेश दिया है, मगर भरत का मन रुग्ण है। हमें राह दिखलायें । बतलायें, ऐसी स्थिति में हमारे लिये क्या करणीय है ? प्रभु ऋषभ ने देखा, दोनों ओर से ऐसे प्रबल आग्रह का प्रतिफल केवल युद्ध होगा। उलझन तब सुलझेगी जब ये सब संबुद्ध होंगे। बोले- संबुज्झह किं नो नो बुज्झह । क्षणभंगुर राज्य के आकर्षण में तुम सब प्राज्य को विस्मृत कर रहे हो। उस राज्य को प्राप्त करो जो अनश्वर है, अक्षय है, अव्यय है, शाश्वत है | 80 Jain Education International For Private & Personal Use Only ANN तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 www.jainelibrary.org

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