Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 69
________________ आपूर्यमाणचलप्रतिष्टं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । 13 तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ परिणामभद्रता में ही सदैव श्रेयस् निहित रहता है लेकिन अनुस्त्रोत में बहना सुगम है। कामों की कामनाओं के चक्र से ही संसार संसार बना हुआ है। इनका पार नहीं पाया जा सकता। ये विघ्न बहु व द्वन्द्वयुक्त होते हैं। जिसने अपना लक्ष्य ऊंचा बना लिया है, परिणामों की भद्रता और अभद्रता को अच्छी तरह जान लिया है। कुछ नया करने का जिसके मन में संकल्प है, वह इन कामनाओं के दासत्व को स्वीकार नहीं कर सकता । वैराग्य से ही इनका पार पाया जा सकता है। 14 भर्तृहरि ने इस अन्तिम सच्चाई को जाना — 'भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता' काम भीतर में जलने वाली अग्नि है, जो जीवन को समाप्त कर देती है । इसकी कामनामात्र से व्यक्ति दुर्गति में चला जाता है। चक्रव्यूह का भेदन और अभिनिष्क्रमण 15 सारा संसार जिस चक्रव्यूह के भीतर फंसा हुआ है-उससे पार पाने का उपाय भी है । पुरुषार्थ, संकल्प बल और संयम की शक्ति जब जागती है, समाधान खोजा जा सकता है। आचारांग में इसी संयम के लिए पुरुषार्थ और संकल्प के बीज बोए गए हैं। कामना के दासत्व से मुक्ति के लिए कुछ उपाय निर्दिष्ट हैं 1. जो कामों के दास बने हुए हैं, कामों में ही अनुप्रवर्तन करने वाले हैं उनकी स्थिति को देखें । कामासक्त उत्तरोत्तर कामों के पीछे चक्कर लगाता है। कामेच्छा कामसेवन से कभी शांत नहीं होती । अपितु अकाम से उपशांत होता है। इस अनुभूति का जागरण काममुक्ति का सशक्त आलंबन है। 16 काममय जीने वालों की स्थिति को देखें कि क्या जिन्दगी को वे कभी शांति, तृप्ति या तोष का आश्वासन दे सकते हैं ? नहीं, क्योंकि ये तो ऐसी आग है जिसे जितना सींचा जाए उतना ही बढ़ती जाएगी। 2. आसक्ति से उपरत होने का दूसरा महत्वपूर्ण मार्ग है- उपाय विचय देखें कि जैसे अन्दर है वैसा ही बाहर है, जैसा बाहर है वैसा ही अन्दर है । शरीर के अन्दर जो विवर है निरन्तर अशुचि पदार्थों को स्त्रावित कर रहे हैं। मेडिकल कॉलेज में जाकर देखें - शरीर की सच्चाई क्या है? यह कितना सत्वहीन, सारहीन, रसहीन है, कितना वीभत्स है ? मल्ली कुमारी ने इसी सच्चाई को, शरीर की अशुचिता को राजाओं के सामने व्यक्त किया । गहराई के साथ शरीर प्रेक्षा करें जैसे ही शरीर में आसक्ति हट जाएगी, काम से आसक्ति हट जायेगी । ' 3. जानना और देखना अप्रमाद है, जागरूकता है। आसक्ति को छोड़ने का उपाय हैआसक्ति को देखना- ज्ञाता - द्रष्टाभाव या साक्षीभाव में स्थित हो जाना। यह परित्याग का महत्वपूर्ण उपाय है । जैसे-जैसे जानना और देखना पुष्ट होता है वैसे-वैसे कर्म संस्कार क्षीण होने पर आसक्ति अपने आप क्षीण हो जाती है। संयत चक्षु या अनिमेष प्रेक्षा से आत्मलीनता सुगम हो जाती है। आत्मलीन के लिए बाहर कहीं, कभी और कोई आकर्षण नहीं । दीर्घदर्शी साधक अधोगति, तिर्यग्गति के हेतुओं को जानकर उनका वर्जन करता है। 18 तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 64 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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