Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 72
________________ पुस्तक-समीक्षा ऋषभायण भारतीय संस्कृति के आदि सर्ग की दिव्य परिक्रमा -जतनलाल रामपुरिया 'ऋषभायण' आचार्यश्री महाप्रज्ञ की काव्यात्मक मौलिक रचना है जिसे ऋषभयुग के इतिहास, कला, साहित्य, धर्म, दर्शन, संस्कृति और जीवन मूल्यों का भाष्य कहा जा सकता है। सन्तता की स्याही से लिखा ऋषभायण ऋषभ के जीवन-दर्शन में अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों को तलाशने की सफल यात्रा है। यद्यपि इसकी अर्थात्मा को समझने के लिए हम आचार्यश्री महाप्रज्ञ द्वारा लिखित भाष्य की प्रतीक्षा करेंगे पर लेखक ने ऋषभायण अनुकृति के रूप में उसकी विस्तृत समीक्षा प्रस्तुत की है। अनुशीलन की इस परिक्रमा में उन्होंने सत्य को देखने-समझने की दृष्टि दी है और महाकाव्य की गहराई तक पहुंचने के नए रास्ते खोले हैं। प्रबुद्ध पाठकों के लिए यह आलेख चिरन्तन दर्शन से रूबरू कराता हआ चेतना के ऊर्ध्वारोहण में प्रज्ञाजागरण की मजबूत सीढ़ियां तैयार करेगा और दिव्य संदेश बनेगा जीवन के सत्य तक पहुंचने का। - सम्पादक ऋषभायणः अनुकृति दर्शन केवल दर्शन है, आगे कुछ नहीं मेरे लिये इस जगह स्थिर हो जाना अच्छा रहता है मगर प्रकृति मनुष्य की इतनी कृतज्ञ नहीं कि जो जहाँ चाहे उसे वहाँ स्थिर होने दे। सच तो यह है कि हर मनुष्य वहाँ स्थिर है जहाँ उसका मन अस्थिर है। इस दृष्टि से सारी मनुष्य जाति विस्थापित है। जन्म से ही दर्शन मनुष्य के साथ है। फिर भी वह दर्शन के दर्शन नहीं कर सका । दर्शन भी इसलिए एक विस्थापित की मनोदशा में है। और यह धरती? इतने सारे पाप के पुतलों का बोझ ढ़ोने की जगह यह भी नीरव-निर्जन चन्द्रमा की जगह स्थापित होना पसन्द करती। तब न दर्शन होता, न मैं। तब खाली धरती होती, बस ! और कुछ नहीं। कुछ न होने की यह मीठी कल्पना, आप धरती से पूछिये, उसे बड़ी सुखकर लगी है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी--जून, 2001 ATTITIO IIIIIIIIIII IIV 67 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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