Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 73
________________ धरती चन्द्रमा की जगह नहीं हुई। खाली भी नहीं रही। बहुत कुछ चला आया इसके पास | यह उसकी इच्छा नहीं, विवशता है। इस बहुत कुछ में बहुत कुछ उलझा हुआ है। शून्य को देखिये। बड़ा छली है। शून्य है, पर शून्य बन कर कभी रहता नहीं। शून्य है, पर सबको भयातुर रखता है। शून्य है, पर विद्रोह को स्वर देता है। जब-जब किसी ने किसी को शून्य बनाने की सोची तब-तब विद्रोह हुआ, विस्फोट हुआ । वैचारिक विस्फोटों से लेकर आणविक विस्फोटों तक सब शून्य की कोख में पले हैं। इस बहुत कुछ में अतीत भी एक है। उनकी अलग चर्या है। धरती पर जो कुछ है, सब गलता है, पिघलता है। पर अतीत न गलता है, न पिघलता है। बल्कि हर बीतते पल के साथ वह और भी सघन होता जाता है। अतीत शाश्वत है। उसके स्वर भी शाश्वत हैं। अनवरत शून्य में तैरते रहते हैं। प्रकाश की किरणें जिस वस्तु पर पड़ती हैं, उसी के अनुरूप आकार ले लेती हैं। अतीत के कम्पन भी जिसे स्पर्श करते हैं, उसे उसके मनोभावों के अनुरूप अपना अर्थ देते हैं। अतीत के पृष्ठों को जो लौकिक लिपि में पढ़ते हैं वे उन्हें इतिहास की संज्ञा देते हैं और घटनाओं की समाप्ति को उपसंहार समझ कर फिर अपने में लौट आते हैं। मगर जिन्हें अतीत की स्फुरणा में अलौकिक स्वरों की अनुगूंज सुनाई देती है वे उसमें उस दर्शन से साक्षात्कार करते हैं, जिसकी अनुभूति धरती को उसकी विवशता की मनोव्यथा से मुक्ति दिलाती है। हजारों वर्ष पूर्व के काल-खण्ड पर ऋषभ-वृत्त अंकित है। आचार्य महाप्रज्ञ की सद्य प्रकाशित काव्यकृति ऋषभायण को जिन लोगों ने नहीं पढ़ा है वे इसमें भी, जैसा कि इसके नाम से भास होता है, केवल ऋषभ के उस इतिहास को ही अंकित समझेंगे। मैं भी यही सोचता था। इसी बीच श्री गोविन्दलालजी सरावगी (कलकत्ता) ने उस पुस्तक की कुछ प्रतियाँ वितरणार्थ मेरे अग्रज श्री ताराचन्दजी रामपुरिया को भेजी। उन्होंने एक प्रति मुझे दी। पुस्तक मेरे पास कुछ दिन ऐसे ही रखी रही । एक दिन मन बहलाने की-सी ही मनःस्थिति में मैंने इसे हाथ में लिया । अनायास ही पृष्ट 94 खुला | प्रथम पंक्तियों पर दृष्टि पड़ी धर्म, संयम और मुनि का अर्थ-पद अज्ञात है शब्द का संसार सारा अर्थ का अनुजात है मैं अब तक भ्रम में था कि शब्द-यात्रा जहाँ समाप्त होती है, अर्थ-यात्रा वहाँ से प्रारम्भ होती है और इसलिए सदा शब्दों में ही अर्थ खोजता रहा हूँ। मगर 'शब्द का संसार सारा अर्थ का अनुजात है' इस पंक्ति ने मुझे बाँध लिया। अचानक जैसे एक किरण फूटी। तो क्या इस पुस्तक में अर्थ को शब्द मिले हैं? इतिहास-कथा से क्या कुछ ऊपर है यह पुस्तक? मैं ठहर गया । तब से आज तक ऋषभायण के पृष्ठों पर ही ठहरा हूँ और अब आपसे यह कहने को आतुर हूँ कि इस पुस्तक में सचमुच केवल अर्थ हैं, केवल अर्थ और वे अर्थ जो मनुष्य के अन्तर्मन में व्याप्त अनर्थ को अवरोहण की दिशा में प्रस्थित करते हैं। 68 MINAIN ANTITITIONS तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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