Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 60
________________ चतुर और रति के समान सौन्दर्य वाली यह मृगाङ्कलेखा सुन्दर मालूम होती है। यह मन्द-मन्द मुस्कुराती हुई देखती है, थोड़ी देर बाद जम्हाई (व्याजृम्भण) लेती है, इसके अनन्तर इसका शरीर कम्पित तथा रोमाञ्चित होता है, बार-बार अपने स्तनभाग पर से हटे हुए वस्त्र को यह पुनः वस्त्र से नहीं ढ़कती है, अपनी दूसरी सखी का आलिङ्गन करती है, अपने केशों को यह फैलाती है तथा सखियों से बिना कुछ पूछे हुए भी उनसे प्रत्युत्तर में कुछ सुनना चाहती है। (इस श्लोक के द्वारा हास्य-भेदों को नदी या समुद्र के पक्ष में रखकर ये समझा जा सकता है।) शब्दक्रम मृगाङ्कलेखा समुद्र नदी भाविनी–सर्व-भाव विलासों की आश्रयस्वरूपा-समुद्र या नदी 1. स्वैरं सस्मितमीक्षते-चचंल नेत्र वाली मंद-मंद मुस्कराती हुई। तन्वी मंद-मंद उठती लहरें। 2. क्षणमलं व्याजृम्भते वेपते रोमाञ्चं तनुते महुस्तनतटे व्यालम्बते नाम्बरम् जम्हाई लेती, कंपित, रोमांचित, शरीर, स्तनभाग से हटे वस्त्र को नहीं ढ़कती। पहले से थोड़ी उपर उठती सी अंगड़ाई लेती सी लहरें। 3. आलिङ्गत्यपरां तनोति चिकुरं - दूसरी सखी का आलिङ्गन करती, केशों को फैलाती (केश अत्यधिक हिलने लगे) एक लहर दूसरी लहर का आलिङ्गन करने को भागती सी मानों अपनी केश राशि को बिखेरती सी। उपर्युक्त क्रम को हास्य के क्रमशः स्मित, हसित, एवं तृतीय में विहसित, उपहसित एवं अपहसित का संयुक्त रूप देखने को मिलता है। इससे आगे लहरों के हा-हाकार को हास्य का अतिहासित भेद कहा जा सकता है, जो उपर्युक्त श्लोक में तो उल्लेखित नहीं है, परन्तु जगह-जगह अट्टहास शब्द का हास्यार्थ में प्रयोग हुआ है, अतः कह सकते हैं कि हास्य के षड् भेदों का विवेचन यहां हुआ है। इस प्रकार निम्न पात्रों से युक्त तथा अधम कोटि की वर्ण्य वस्तु प्रस्तुत करने वाले इस प्रहसन में प्रणयनकालीन समाज में प्रचलित पाखण्ड, अनाचार आदि विकारों के दुष्परिणामों को मञ्च पर प्रत्यक्ष देखकर दर्शकों के हृदय में सामाजिक बुराइयों के प्रति वैमुख्य भाव का उदय होने की संभावना से अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। 'हास्यार्णवप्रहसन' की शैली विपरीतता, असंगति एवं असम्बद्धता की है, जिसके द्वारा व्यवस्था पर कटाक्ष किया गया है। हास्य व्यंग्य में वह क्षमता है कि जिसमें यथार्थ की तिर्यक वक्र या विपरीत अभिव्यक्ति पाठक के लिए आइने का काम तो करती ही है, परन्तु इसके मन में गहरे पैठकर रचनात्मक चिन्तन पैदा करती है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 SITTITI IN 55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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