Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 44
________________ भाषातत्त्ववेत्ताओं का मत है कि कोई भी भाषा जब तक व्याकरण के नियमों से निगढ़ित नहीं होती, तब तक वह जनभाषा बनी रहती है और जब भाषा व्याकरण तथा साहित्यिक शास्त्रानुशासन से बाँध दी जाती है, तब वह जनता से दूर जा पड़ती है। यह दशा संस्कृत और क्रमशः प्राकृत तथा पालि की रही। जो प्राकृत एक युग में अपनी सरलता के कारण जन-जन की भाषा थी, वही व्याकरण के नियमों की मर्यादा से प्रौढ़त्व प्राप्त करने के बाद अव्यावहारिक बन गई। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कन्या जब तक बाल्यावस्था में रहती है, वह माता-पिता तथा अन्यान्य बन्धु वर्ग के आनन्द का स्रोत बनी रहती है वही जब युवती होकर अपनी पत्नीत्व मर्यादा में नियन्त्रित हो जाती है, तब एक सीमित परिवार के ही आनन्द का माध्यम बनती है, तो अब प्राकृत भाषा जनभाषा की अपेक्षा पुस्तकीय भाषा-मात्र रह गई है। प्राकृत भाषा के विकास का गहरा प्रभाव संस्कृत पर पड़ा है। प्राकृत के विकास से संस्कृत विकृत या लुप्त नहीं हुई। स्वाभाविक तौर से यही होता है कि किसी नवीन भाषा के स्वरूप के विकास के बाद पुराना स्वरूप धीरे-धीरे नष्ट हो जाता है। किन्तु, संस्कृत के सम्बन्ध में दूसरी बात हुई। संस्कृत और वेगवती हो गई। बुद्ध और महावीर के पहले आर्यों की संस्कृत भाषा-अधिकतर यज्ञानुष्ठान और तत्त्व-चिन्तन जैसे उच्च कक्ष के साहित्य का स्पर्श करती थी। शिष्टता के शिखर पर ही इसका व्यवहार होता था, वह दैनिक विषयों को नहीं छूती थी। जब प्राकृत-भाषा ने धर्म के अतिरिक्त प्रजा-जीवन के व्यवहार की बातों को भी साहित्यिक स्वरूप देना प्रारम्भ किया तब प्राकृत संस्कृत की प्रतिस्पर्धिनी हो गई। इससे एक लाभ यह हुआ कि संस्कृत को अपने अस्तित्व के लिए प्राकृत की तरह लोकप्रिय होने का आह्वान मिला। प्राकृत तो जनसामान्य की भाषा होने से पहले ही लोकप्रिय थी। संस्कृत ने इस आह्वान का योग्य उत्तर भी दिया। यज्ञ-याग और उपनिषदों की चर्चा से आगे बढ़कर, समाज के अनेक वर्गों में अपना स्थान अधिकृत करने के लिए संस्कृतसाहित्य बहुपथीन हुआ। किसी एक विषय तक ही सीमित न होकर अनेक लोकप्रिय विषयों में भी संस्कृत का व्यवहार बढ़ने लगा। इस काल में (ई. पू. 5वीं शती के बाद) आर्य प्रजा ने अपनी संस्कृति समग्र भारत पर जमा ली थी और संस्कृत का व्यवहार अनेक आर्य और आर्येतर भी करने लगे थे। संस्कृत का क्षेत्र अब एकदम विशाल हो गया। अनेक प्रकार के साहित्य की सर्जना होने लगी। इस प्रवृत्ति से संस्कृत के भाषा-स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुआ। जब कोई एक भाषा अन्यभाषी प्रजाओं में व्यवहार में प्रयुक्त होने लगती है तब उसके व्याकरण-नियमों या स्वरूपों की संकुलता स्वतः कम हो जाती है और शब्दों के अर्थ भी बदलने लगते हैं। संस्कृत भी इसी तरह बदलती गई। किन्तु अब उसका व्यवहार क्षेत्र बढ़ गया और इससे उसका शब्दकोश भी समृद्ध हो गया । प्राकृत-भाषा के विकास क्षेत्र पर अपने बढ़ते हुए शब्दकोश के द्वारा संस्कृत ने भी अपना विकास जारी रखा। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AMI IIIIIIV 39 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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