Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 50
________________ अकारान्त पुल्लिंग नाम के प्रथमा एकवचन के अस् का ए सार्वत्रिक है। वर्तमान कृदन्त के 'मान' धौली-जौगड़ में मिलते हैं। जैसे पायमान, विपतिपाद्यमान | इस प्रकार, पूर्व की भाषा के ये लक्षण हमारे लिये मागधी, अर्द्धमागधी के प्राचीनतम उदाहरण हैं। प्राकृत-भाषाओं के विकास को इतिहास की दृष्टि से तीन या चार खण्डों में विभाजित करते हैं। प्राचीनतम प्राकृत के उदाहरण अशोक के लेखों में और पालि साहित्य के कुछ प्राचीन अंशों में मिलते हैं। इस काल की संक्षिप्त विशेषताएं इस प्रकार है- 'ऋ' और 'लु' का प्रयोग नहीं होता। ऐ, औ, अय, अव का ए, ओ, अन्त्य व्यंजन और विसर्ग का लोप | इस अन्तिम प्रक्रिया से सब शब्दं स्वरान्त होते हैं और कुछ अविकृत रहते हैं, विशेषतः र युक्त और कहीं-कहीं ल युक्त । प्रथम भूमिका में स्वरान्तर्गत व्यंजनों का घोषभाव जैसे 'क' का 'ग' अपवादात्मक रूप से होता है। द्वितीय भूमिका में स्वरान्तर्गत असंयुक्त व्यंजनों का घोष भाव और तदन्तर घर्षभाव होता है। प्राचीन अर्द्धमागधी आगमों की भाषा में जो कुछ प्राचीन अंश मिलते हैं, जैसे 'आचारांगसूत्र' और 'सूत्रकृतांग' के कुछ अंश, इस भूमिका की अन्तिमावस्था में आ सकते हैं। इस समय में घोषभाव की प्रक्रिया सर्वसामान्य है, किन्तु स्वरान्तर्गत व्यंजनों का सर्वथा लोप नहीं होता, स्वरान्तर्गत महाप्राणों का 'ह' भी सर्वथा नहीं होता। तीसरी भूमिका में साहित्यिक प्राकृत, नाटकों की प्राकृत और वैयाकरणों की प्राकृत की गणना होती है। इन प्राकृतों में अन्यान्य बोलियों के कुछ अवशेष रह जाते हैं, किन्तु इनका स्वरूप केवल साहित्यिक ही है। इस भूमिका में स्वरान्तर्गत व्यंजनों का सर्वथा ह्रास होता है और महाप्राणों का सर्वथा 'ह' होता है। मूर्धन्य का व्यवहार बढ़ जाता है। चौथी भूमिका में अपभ्रंश की परिगणना होती है। यह साहित्यिक स्वरूप हमारी नव्य भारतीय आर्यभाषाओं का पुरोगामी साहित्य है। यह केवल साहित्यिक स्वरूप है। बोली के भेद स्वल्प-मात्रा में ही परिलक्षित होते हैं। अधिकांश पूर्व से पश्चिम तक एक शैली में लिखा गया यह केवल काव्य-साहित्य है। निष्कर्षतः, प्राचीन आगम-साहित्य को हम दूसरी और तीसरी भूमिका के संक्रमणकाल में और शेष आगम साहित्य को तीसरी भूमिका में रख सकते हैं। स्थानविशेष की दृष्टि से अर्द्धमागधी पूर्व की भाषा होते हुए भी कालक्रम से पश्चिम, मध्यदेश के प्रभाव से अंकित होने लगी। इसलिए पूर्व के 'श' की जगह अर्द्धमागधी में 'स' का प्रयोग शुरू होता है। पूर्व के अस् ए की जगह अर्द्धमागधी में रचित आगम साहित्य में पश्चिम का ओ भी व्यवहृत होता है। यद्यपि प्राचीन पश्चिम का 'र' भी धीरे-धीरे व्यवहृत होने लगा है। इससे यही सूचित होता है कि आगमों की पूर्व की भाषा का पश्चिमी संस्करण इनकी भाषा के महत्त्व का प्रकार विशेष ही है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 NTIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII I I IIIIIIN 45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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