Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 54
________________ हास्यार्णव प्रहसनम् हास्य रस की पृष्ठभूमि में नाटक की परिभाषा करते हुए दशरूपककार श्री धनञ्जय ने कहा है कि ‘अवस्थानुकृतिर्नाम्' अर्थात् विभिन्न अवस्थाओं की अनुकृति — नकल करना भी नाट्य है । रूपक की परिभाषा करते हुए धंनञ्जय कहते हैं कि 'रूपकं तत्समारोपात्' विभिन्न नटों के द्वारा अभिनीत किए जाने वाले नाटक के पात्रों का अपने ऊपर आरोप कर लेने के कारण ही इसे रूपक कहा जाता है। रूपक के दस भेद हैं 'नाटकमथ प्रकरणं भाणव्यायोग समवकार डिमाः । ईहा मृगाङ्कवीथ्यः प्रहसनमिति रूपकाणि दश ॥" - डॉ. गोपाल शर्मा - उपर्युक्त दश रूपक-भेदों में प्रहसन भी एक है । 'प्रहसन' इस शब्द से ही हास्य के भाव की सूचना मिलती है। इस धातु में घञ् एवं ण्यत् प्रत्यय के योग से क्रमशः हास एवं हास्य पद बनते हैं। 'हास' काव्य शास्त्रीय भाषा में हास्य रस का स्थायी भाव है जो एक सहज स्थिर प्रवृत्ति है - 'अथ हास्यो नाम हासस्थायिभावात्मकः।' (नाट्यशास्त्र अध्याय - 6 ) इसका विभाव आचार, व्यवहार, केश विन्यास, नाम तथा अर्थ आदि की विकृति है, जिसमें विकृत केशालंकार, धाट्य, चापल्य, कलह, अतत्मलाप, व्यंग-दर्शन, दोषोदाहरण आदि की गणना की गई है। ओष्ठदंशन, नासा- कपोलस्पन्दन, दृष्टिसंकोचन, स्वेद, पार्श्वग्रहण आदि अनुभावों द्वारा इसके अभिनय का निर्देश किया गया है तथा व्यभिचारी भाव आलस्य, अवहित्य ( अपना भाव छिपाना) तन्द्रा, निद्रा, स्वप्न, प्रबोध, असूया आदि माने गए हैं। सामाजिक हृदय में संस्कार रूप में स्थित हास, स्थायी भाव जब विभाव, अनुमान और संचारी भावों से अभिव्यक्त होकर आस्वाद का विषय बन जाता है तब उससे प्राप्त आनन्द 'हास्यरस' कहलाता है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 Jain Education International For Private & Personal Use Only 49 www.jainelibrary.org

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