Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 43
________________ 'आर्यभाषा का प्राचीनतम रूप हमें ऋग्वेद की ऋचाओं' में मिलता है। दुर्भाग्य से आर्यों की बोलचाल का ठेठ रूप जानने के लिए हमारे पास कोई साधन नहीं है। लेकिन वैदिक आर्यों की यही सामान्य बोलचाल, जो ऋग्वेद की संहिताओं की साहित्यिक भाषा से जुदा है, प्राकृत का मूल रूप है। ___ रुद्रट के 'काव्यालंकार' (2-12) के टीकाकार नमिसाधु ने प्राकृत को संस्कृत आदि सभी भाषाओं का मूल कारण मानते हुए प्राकृत की परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत की है''सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः तत्र भवं सैव वा प्राकृतम् ।... प्राकृत बालमहिलादिसुबोधं सकलभाषा निबन्धनभूतं वचनमुच्यते। मेघनिर्मुक्तजलमिवेकस्वरूपं तदेव च देशविशेसात् संस्कारणाच्च समासादित विशेष सत्संस्कृताधुत्तरविभेदानाप्नोति।'' अर्थात्, व्याकरण आदि के संस्कार से विहीन समस्त जगत् के प्राणियों के स्वाभाविक वचन-व्यापार को 'प्रकृति' कहते हैं। उसे ही 'प्राकृत' कहा जाता है। बालक, महिला आदि की समझ में यह सरलता से आ सकती है और समस्त भाषाओं का यह कारण भूत है। मेघधारा के समान एक रूप और देश-विदेश के कारण या संस्कार के कारण जिसने विशेषता प्राप्त की है और जिसके सत्, संस्कृत आदि उत्तर विभेद हैं। । प्राकृत भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दूसरी मान्यता ठीक इसके विपरीत है। प्राकृतभाषा के प्रकाण्ड पण्डित तथा प्रसिद्ध कोषकार हेमचन्द्राचार्य के सूत्र से स्पष्ट है कि संस्कृतभाषा से ही प्राकृत भाषा की उत्पत्ति हुई-प्रकृतिः संस्कृतम्, तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतं (सिद्धहेमशब्दानुशासन 1-1 की वृत्ति) । किन्तु यह एक पक्षीय व्याख्या-विश्लेषण है। इस उक्ति में यह अर्थ भी निहित है कि प्राकृत व्याकरण जानने के लिए संस्कृत की प्रकृति आवश्यक है अर्थात् जिसकी प्रकृति संस्कृत है उसी के अनुरूप चलने वाली (शब्द/धातु रूप सिद्ध करने वाली) भाषा प्राकृत है। अतः प्राकृत जनभाषा थी । प्राकृत-भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भट्ट श्रीमथुरानाथ शास्त्री ने 'गाथासप्तशती' की अपनी विस्तृत भूमिका में प्रसंगवश लिखा है कि देश और जलवायु के प्रभाव से या कण्ठ, तालु आदि के विलक्षण अभिघात से या उच्चारण आदि की अपटुता या और भी किसी मूल कारण से प्राकृत आदि भाषाओं की उत्पत्ति सम्भव हुई होगी। किन्तु यह संदर्भ विशेष आधारपूर्ण प्रतीत नहीं होता। किन्तु प्राकृत के लिए एक बड़ी ही गुणप्रद बात हुई है कि यह वर्गवाद से सम्बन्धित होने के कारण प्रचुर प्रसार पा गई। वैदिकों तथा जैनों एवं बौद्धों के बीच जब धार्मिक संघर्ष उपस्थित हुआ, तब वैदिकों की भाषा तो संस्कृत रह गई, किन्तु प्रतिद्वन्द्वितावश जैनों ने अर्द्धमागधी और बौद्धों ने पालिभाषा में धर्म प्रचार प्रारम्भ किया। हालांकि पालि और प्राकृत-भाषाएं संस्कृत का ही अनुसरण करके चलती हैं। इसलिए इन दोनों भाषाओं को संस्कृत से भिन्न न मानकर संस्कृत का भेदमात्र मानना अधिक युक्तिसंगत होगा। 38 ANTI तुलसी प्रज्ञा अंक 111--112 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146