________________
शरीर में अतीन्द्रियज्ञान के स्थान
समणी मंगलप्रज्ञा
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा अनन्त, ज्ञान अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द एवं अनन्त शक्ति सम्पन्न है । प्रत्येक आत्मा में अनन्त चतुष्ट्य विद्यमान है । आत्मा अपनी अनन्त ज्ञान शक्ति के द्वारा सार्वकालिक सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थ को सर्वांगीण रूप में जानने में समर्थ है किन्तु संसारावस्था में आत्मा का यह स्वरूप ज्ञान-आवारक ज्ञानावरणीय कर्म से आवृत रहता है, अत: आत्मा का वह मूल रूप प्रकट नहीं हो पाता। आवृत दशा में आत्मा का जितना-जितना आवरण दूर हटता है व उतना ही ज्ञेय जगत् के साथ सम्पर्क स्थापित कर सकती है।
जैन परम्परा में मति आदि पांच ज्ञानों का स्वीकरण है। ये पांच ज्ञान प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो भागों में विभक्त हैं । मति श्रुत ये दो ज्ञान परोक्ष हैं। मति एवं श्रत ज्ञान की अवस्था में आत्मा पदार्थ से सीधा साक्षात्कार नहीं कर सकती। पदार्थ ज्ञान में उसे आत्म भिन्न इन्द्रिय, मन, आलोक आदि की अपेक्षा रहती है, अत: इन ज्ञानों को परोक्ष कहा गया है।' इन्द्रिय ज्ञान प्राप्ति के स्थान शरीर में प्रतिनियत हैं। इन्द्रियां अपने नियत स्थान से ही ज्ञान प्राप्त करती हैं।
__आवरण के विरल अथवा सम्पूर्ण रूप से हट जाने से आत्मा को ज्ञेय साक्षात्कार में बाह्य साधनों की अपेक्षा नहीं रहती अर्थात् इस अवस्था में इन्द्रिय, मन आदि पोद्गलिक साधनों का उपयोग नहीं होता है । अवधि, मनः पर्यव एवं केवलज्ञान ये अतीन्द्रिय ज्ञान हैं । जैन परम्परा में इन्हें प्रत्यक्ष प्रमाण माना गया है।'
अवधि एवं मनः पर्यव ये दो विकल/अपूर्ण प्रत्यक्ष है। तथा केवलज्ञान सकल पूर्ण प्रत्यक्ष है। अवधि मन: पर्यव ज्ञान की सीमा रूपी द्रव्य है, जबकि केवलज्ञान की रूपी अरूपी, सम्पूर्ण द्रव्यों में निर्बाध गति है।
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा शरीर प्रमाण है। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि पारमार्थिक प्रत्यक्ष की ज्ञेय प्रक्रिया में इन्द्रियों की आवश्यकता नहीं है, किन्तु आत्म-प्रदेश देहाधिष्ठित है ऐसी अवस्था में शरीर के अंगोपांग उस ज्ञान प्राप्ति के साधन बनते है या नहीं ? इस प्रश्न का समाधान हमें 'नंदी सूत्र' एवं 'षट्खण्डागम सत्र' में प्राप्त होता है। वहां पर अवधिज्ञान की चर्चा के प्रसंग में इस विषय से संदर्भित महत्वपूर्ण चर्चा हुई है।
आत्मा शरीर के भीतर है और चेतना भी उसके भीतर है । इन्द्रिय चेतना की रश्मियां अपने-अपने नियत स्थानों के माध्यम से बाहर आती हैं तथा पदार्थ जगत् के तुलसी प्रज्ञा, लाग्नूं : खंर २३ अंक ४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org