________________
प्रकटन व्यक्त होता है, कुछ समय के लिए स्थिर रहता है, क्षय होता है और विनष्ट हो जाता है। प्रकटनों का आलंबन कायम रहता है । सारे बाह्य पदार्थ परमाणुओं के संयोग का परिणाम हैं, स्वयं परमाणु मिश्रित नहीं । बैभाषिक पृथिवी, जल, वायु, चार प्रकार के परमाणुओं को स्वीकार करते थे । आकाश को तत्त्व रूप से वे नहीं मानते थे। वैभाषिक इतना ही नहीं मानने थे कि ज्ञाता को उसका स्पष्ट ज्ञान होता
बगत का विषयगत विभाग___इस मत में तत्त्वों का विचार दो दृष्टि से किया जाता है-विषयगत तथा विषयिगत । विषयिगत की दृष्टि से समस्त जगत् तीन भागों में विभर किया जाता है-स्कंध, आयतन और धातु । सौत्रान्तिक मत
___ साधक जब अन्तर्जगत की ओर जाता है, तो उसे चित्त और उससे संबंधित विषयों में विशेष आनन्द मिलता है । उस संबंध में विशेष अनुभव प्राप्त करने से यह ज्ञान भान होने लगता है कि वास्तव में चित्त का बाह्य जगत् की अपेक्षा अन्तर्जगत् से विशेष संबंध है। अतएव साधक अन्तर्जगत् को अधिक महत्त्व देता है। साधक ज्ञान के इतने उच्चे स्तर तक नहीं पहुंच सकता जिसके कारण वह बाह्य जगत् से अपना संबंध सर्वथा छुड़ा सके । तत्वविचार__सौत्रांतिक मत के अनुसार दीपक के निर्वाण के समान ही यह निर्वाण है। इस पद परपहुंच कर साधक के मन में न कोई क्लेश है और न कोई नवीन धर्म की प्राप्ति ही । दीपक के समान ज्ञान अपने को आप ही प्रकाशित करता है । यह अपने प्रामाण्य के लिये किसी अन्य की अपेक्षा नहीं रखता। ये स्वतः प्रामाण्यवादी हैं इनके मत में निरवयव होते हैं । अतएव इनके एकत्र संघटित होने पर भी ये परस्पर संयुक्त नहीं होते और न इसका परिणाम ही बढ़ता है । इनमें अणुत्व ही रहता है । किसी वस्तु का नाश किसी कारण से नहीं होता । वस्तु स्वतः ही विनाश हो जाता है। चार ब्रह्म विहार
ब्रह्म विहार चार हैं-मैत्री, करूणा, मुदिता, उपेक्षा । मैत्री का अर्थ है अद्वेष, मैत्री भावना करते समय द्वेष या लोभ रूपी शत्रुओं से बचकर रहना आवश्यक है । करूणा जीव ही हैं बल्कि वे सुखी जीव भी हैं, जो दुश्चरित हैं और जिनका अधोगति में जाना सुरक्षित है । मुदिता भावना के आलंबन सुखी जीव हैं । उपेक्षा में मध्यस्थ भाव से चित्त को भावित किया जाता है । सभी जीव अपने कर्म के धनी हैं, सब अपने कर्म के अनुसार फल भोगते हैं, इस प्रकार का विचार उपेक्षा है। अव्याकृत या अनाश्यक प्रश्न----
बुद्ध के चिंतन में चौदह प्रश्न ऐसे है जिन्हें 'अव्याकृत' की संज्ञा दी गई है । अनावश्यक का अर्थ है-कथन के अयोग्य-~-इन प्रश्नों पर चर्चा करना आवश्यक
र २३, बंक ४
४८७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org