________________
रामायण में भिक्षुणी (२।२९) एवं तापसी (७।४५-५० ) का वर्णन आया है । कुछ ब्राह्मण कन्यायें गुरु के पास आश्रम में शिक्षा ग्रहण करती थीं। इनमें कुछ नैतिक व्रत धारण कर लेती थीं ।
आगे के काल में भी यह प्रथा प्रचलन में रही । महाकवि कालिदास के काल ( ई० पू० प्रथम शती) में इस प्रथा की विद्यमानता की बात का ज्ञान स्वयं महाकवि की रचनाओं से होता है। मालविकाग्निमित्र नाटक में महाकवि एक परिव्राजिका का उल्लेख करते हैं । अग्निमित्र उसे 'भगवती' शब्द से संबोधित करता है तथा प्रणाम करता है । नृत्य आचार्य गणदास और हरदत के मध्य समुपस्थित विवाद में राजा इस परिव्राजिका को निर्णायक नियुक्त करता है । आगे के वर्णन से ज्ञात होता है कि इस परिव्राजिका को नृत्यकला का अति सूक्ष्म ज्ञान है । इस ज्ञान के आधार पर घोषित इसके निर्णय से राजा प्रसन्न होता है । इस परिव्राजिका ने वैधव्य और अपने भाई की मृत्यु के कारण कषाय वस्त्र ग्रहण कर लिये थे । ' ततो भ्रातृ शरीरमग्निसात् कृत्वा पुनर्नवीकृत वैधव्यदुःखया मया त्वदीयं देशमवतीर्य कषाये गृहीते ।'
इसी प्रकार 'अभिज्ञान शाकुंतल' में आये एक प्रसंग से भी ज्ञात होता है कि उस काल में कुछ कन्यायें विवाह नहीं कर आजन्म - वनवासिनी बनीं रहकर परिव्राजिका के रूप में जीवन यापन करती थीं । शकुंतला को तपस्वी आश्रम में प्रथम बार देखकर दुष्यन्त के मन में यह शंका थी कि कहीं इसने आजन्म ब्रह्मचारिणी रहने का व्रत तो नहीं कर रखा है । वह इस शंका का निवारण प्रियम्वदा से करते हुये कहता है—
वैरवानसं किमनया व्रतमाप्रदानाद् व्यापाररोधि मदनस्य निषेवितव्यम् । अत्यन्तमेव सद्दशेक्षण वल्लभाभि
राहो निवत्स्यति समं हरिणाङ्ग नाभिः ॥
अर्थात् आपकी यह प्रिय सखी विवाह होने तक ही इस मुनि वेष को धारण करेगी या समस्त जीवन इन हरिनियों के साथ ही बितायेगी । स्त्रियों में भावुकता का समावेश पुरुषों से अधिक होता है अतः प्रतिकूल परिस्थितियों में भावावेश में वे प्रव्रज्या ग्रहण कर लेती थीं । कुछ का यह प्रयत्न अतीव सुविचारित भी होता था । बौद्ध युग में इसके पूर्व तपस्विनियों एवं भिक्षुणियों की संख्या में अकथनीय रूप से वृद्धि हुयी। इस काल में संसार को दुःखमय मानकर अनेकों स्त्री पुरुष प्रव्रज्या ग्रहण करने लगे । प्रव्रजितों की समाज में एक बाढ़ सी आ गयी थी जिसमें स्त्रियां भी पीछे नहीं रहीं । बौद्ध संघ के प्रारंभिक काल में सभी इच्छुक प्रदान की जाती थी जो इसके लिये कृतसंकल्प होते । वंचित किया गया था। आगे चलकर अनुपयुक्त लोगों बौद्ध भिक्षु बनने के लिये प्रवज्या और उपसम्पदा की दीक्षा अनिवार्य होती थी। पहली दीक्षा १५ वर्ष की वय में तथा बीस वर्ष की अवस्था में, दूसरी दीक्षा इसके ५ वर्ष बाद दी जाती थी ।
व्यक्तियों को भिक्षु धर्म की दीक्षा स्त्री जाति को इस अधिकार से को दीक्षा नहीं दी जाती थी ।
૫૦૪
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
तुलसीप्र
www.jainelibrary.org