Book Title: Tulsi Prajna 1998 01
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 142
________________ अध्याय हैं और कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व पर कुछ भी निर्णयात्मक नहीं लिखा गया है । केवल उनकी दो कृतियां-'आनन्दधन चौबीसी' और 'आनन्दघन बहोत्तरी' को सामने रखकर यह अध्ययन हुआ है। लेखिका का निष्कर्ष है कि आनन्दघन के पदों में भक्ति, योग, अध्यात्म, दर्शन, ज्ञान, वैराग्य, स्वानुभूति, आत्मानुभव-रस, उदारता, सत्संग-माहात्म्य, शृंगार, विरह मिलन आदि अनेक विषयों का समावेश है किन्तु उनका प्रतिपाद्य विषय अध्यात्म तत्त्व का विवेचन ही है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि 'यद्यपि आनन्दघन की रचनाएं परिमाण से न्यून हैं किन्तु इन कृतियों में रहस्य भावना का अगाध सागर लहरा रहा है। उनकी इन कृतियों के आधार पर ही हम अध्यात्म-कवि-कुलमणि आनन्दघन की जीवन-दृष्टि समझ सकते हैं। जिस प्रकार उपवन का एक-एक सुरभित पुष्प समस्त प्रकृति का सौन्दर्यानन्द हमारे अन्तर में उतारता है उसी प्रकार इस रहस्यवादी कवि की एक-एक रचना हमारे अन्तर मानस को आलोकित करती है ।' लेखिका का कहना है कि आनन्दघन का रहस्यवाद एक वृक्ष की भांति है, जिसका वीज परमात्म-प्रेम है, अंकुर आध्यात्मिक विरह है, आत्म-दर्शन फूल है और परमात्म स्वरूप की उपलब्धि मधुर फल है । उसमें रत्नत्रय, भक्ति और योग का सुन्दर समन्वय हुआ है। वस्तुतः आनन्दघन की विवेचन-पद्धति विविध रूपिणी है। उसमें प्रतीक, अमूर्त तत्त्वों का मानवीकरण, रूपक, रहस्य और समन्वयात्मक दृष्टि के सर्वत्र दर्शन होते हैं । इसीलिए "आनन्दघन-बाईसी" पर बालावबोध के लेखक मुनि ज्ञानसार लिखते आशय आनन्दघन तणो, अतिगंभीर उदार ।। बालक बांह पसारी जिम करे उदधि विस्तार ।" किन्तु कवि आनन्दघन केवल हाथ पसारकर ही समुद्र का विस्तार नहीं बताते । वे कहते हैं समता रतनाकर की जाई, अनुभव चंद सु भाई । कालकूट तजि भव में सेणी, आय अमृत ले जाई ।। लोचन चरण सहस चतुरानन, इनते बहुत डराई । आनन्दघन पुरुषोत्तम नायक, हितकारी कंठ लगाई ।। अर्थात् समता हृदय रूप समुद्र की पुत्री है और अनुभव रूप चन्द्रमा उसका भाई है । उसमे संसार की विषय वासना रूप गरल को त्याग कर शांति रूप अमृत का स्रजन किया है किन्तु वह सहस्रों नेत्र और हजार पैर वाले क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चतुर्मुख से डरती है तो आनन्द रूप परमात्मा उसे इस डर से मुक्त कर देते हैं । इस प्रकार ओघ नियुक्ति के अनुसार जो समस्त जैन आध्यात्मिक साहित्य का सार तत्त्व-आत्म साक्षात्कार है वही आनन्दघन का रहस्यवाद है और कवि उसके द्वारा अपनी समस्त चेतना को आत्म साक्षात्कार के लिए नियोजित करता है । लेखिका ने इस तथ्य को उजागर करने के लिए गंभीर प्रयत्न किया है किन्तु 'अभी इसमें काफी सुधार की आवश्यकता है।' खण्ड २३, बंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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