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है । यह ज्ञान जिसको होता है वही अर्हत् कहा जाता है। उसके कवलाहार से सर्वज्ञता अविरोधी है इसलिए उसकी सर्वज्ञता में कोई बाधा नहीं होती ।
सर्वांश में पूज्य श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी की प्रेरणा और आशीर्वाद से श्री जिनशासन आराधन ट्रस्ट ने इस दुर्गम पथ को सुगम बनाने का सदुद्योग किया है जिसके लिए ट्रस्ट के सभी ट्रस्टी साधुवाद के पात्र हैं । आशा है, शेष भाग भी शीघ्र ही प्रकाशित होंगे और इस अद्भुत ग्रंथ के मुख्य विषय- - प्रमाण और नय में पाठकों की अभिरुचि बढ़ेगी ।
२. हस्त प्रतों में उपलब्ध प्राचीन पाठों (शब्द - रूपों) के आधार पर भाषिक दृष्टि से पुनः सम्पादित - आचारांग ( प्रथम श्रुतस्कन्ध : प्रथम अध्ययन ); सम्पादकके. आर. चन्द्र; प्रकाशक - प्राकृत जैन विद्या विकास फंड, अहमदाबाद- --३८००१५; सन् १९९७ ; मूल्य १५०/- रुपये ।
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डॉ. के. आर. चन्द्र पिछले कई वर्षों से प्राचीन अर्द्धमागधी भाषा के मूल स्वरूप को शोधने में लगे हैं । सन् १९९२ में उनका इस संबंध में पहला प्रकाशन - प्राचीन अर्द्धमागधी की खोज में छपा। सन् १९९४ में दूसरा प्रकाशन - रेस्टोरेशन ऑफ दी ओरिजिनल लेंग्वेज ऑफ अर्धमागधी टेक्स्टस् छपरा और सन् १९९५ में परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी नामक तीसरा ग्रंथ मुद्रित हुआ । आधुनिक भाषा विज्ञान तकनीक के हिमायती विद्वानों ने उनका पूरजोर स्वागत किया और पुरातन पंथी और आगमों में भाषिक छेड़छाड़ के विरोधी तथा शब्द से अधिक अर्थ को प्राधान्य देनेवाले श्रद्धालु विद्वानों ने उनका विरोध भी किया ।
संप्रति वे अपने द्वारा निर्धारित मापदण्डों के आधार पर भाषिक दृष्टि से पुनः सम्पादित आचारांग ( प्रथम श्रुतस्कन्ध: प्रथम अध्ययन ) के प्रकाशन के साथ उपस्थित हुए हैं । निःसंदेह यह उनके अजस्र अध्यवसाय, कठिन परिश्रम, सतत पाठानुशीलन और मूलभाषा तक पहुंचने की उनकी तड़प का ही परिणाम है । लगता है उन्हें महावीर की वाणी के यत्किचित् दर्शन हुए हैं !
डॉ० चन्द्र ने प्रो० एच० जकोबी के द्वारा ताडपत्रीय प्रत् सं० १२९२ और कागज पर लिखे ग्रंथ सं० १४४२ के आधार पर संपादित 'आयारंग सुत्तम्' के 'पढमं अज्झयण' की मूल लिपि (फोटो) प्रकाशित की है। महावीर जैन विद्यालय और आगमोदय समिति संस्करणों से २६० शब्दों के स्वरूप और जैन विश्व भारती और महावीर जैन विद्यालय से ७२ शब्द; आगमोनय समिति और जैन विश्व भारती संस्करणों में ६२ शब्द, महावीर जैन विद्यालय संस्करण और सं० १३०३ का ताडपत्रीय प्रति (खंभात ) से ८० शब्द; सं० १३२७ की ताडपत्रीय प्रति से २० शब्द ; सं० १३४८ की ताड़ पत्रीय प्रति से ४० शब्द तथा सं० १४८५ की ताड़पत्रीय प्रति से ४७ शब्द इत्यादि अनेक रूप परिवर्तनों को तुलनात्मक अध्ययन के लिए प्रकाशित निर्युक्ति, प्राकृत व्याकरण और अन्य जैनागमों से भी कतिपय रूप परिवर्तनों को देकर अपने मानदण्ड निर्धारित किए हैं और तदुपरांत आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुत स्कंध के प्रथम अध्ययन का पुनः संपादन किया है ।
किया है । वृत्ति, शब्दों की तुलना और
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तुलसी प्रशा
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