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साहित्य-सत्कार एवं पुस्तक-समीक्षा
१. श्री रत्नप्रभाचार्य कृत रत्नाकरावतारिका, भाग-१, संशोधक एवं सम्पादक -मुनिराज श्री कल्याण बोधि विजय; गुजराती भाषा-धीरजलाल डाह्या लाल मेहता; प्रकाशक-श्री जिनशासन आराधना ट्रष्ट, कनाशानो पाड़ो, पाटण (उ० गु०) प्रकाशन वर्ष वि० सं० २०५३; मूल्य ३००/- रुपये।
__श्री वादिदेवसूरि कृत प्रमाण नय तत्त्वालोक जैन न्याय का अद्भुत ग्रंथ है। स्याद्वाद रत्नाकर नाम से उस पर स्वोपज्ञ वृत्ति है जिसे सुगम बनाने को सूरिजी के शिष्य रत्नप्रभ सूरि ने उस पर रत्नाकर अवतारिका टीका की है। श्री मलय विजयजी ने उसका गुजराती अनुवाद किया है और श्री धीरजलाल मेहता ने उसे प्रकाशन योग्य बनाया है। प्रस्तुत जिल्द में केवल दो परिच्छेदों को मुनिश्री कल्याण बोधि विजयजी से संशोधित कराके प्रकाशित किया गया है।
श्री वादिदेव सूरि ११वी १२वीं सदी में हुए। वे वाद-निपुण और जैन न्याय शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे। उनके इस ग्रंथ प्रमाण नय तत्वावलोक में आठ परिच्छेद हैं जो ३७९ सूत्रों में निबद्ध हैं । प्रमाण, उसके दो भेद-प्रत्यक्ष एवं परोक्ष, प्रतिभेद, नेगम आदि सात नय, नयाभास, प्रमेय द्रव्य, प्रमाता आत्मा, प्रमाण फल और वादविधि आदि विषयों पर सूरिजी ने विशद् और युक्तियुक्त विवेचन किया है।
इस जिल्द में अवतारिका टीका को सुगम और बोधगम्य बनाने के लिए विस्तृत गुजराती व्याख्या दी गई है। प्रथम परिच्छेद में प्रमाण और नय को वस्तु तत्त्व के व्यवस्थापन में उपयोगी सिद्ध किया है और न्याय दर्शन के प्रमाण करणं प्रमाणम् को पर्याप्त न मानकर ज्ञान का लक्षण-स्व पर व्यवसायी ज्ञानं प्रमाणम्-दिया गया है। वादि देव सूरि का मन्तव्य है कि प्रमाण यथार्थ (स्वसंविहित) ज्ञान होता है। उसमें स्व पर का व्यवसायी ज्ञान होना जरूरी है। इन्द्रिय सन्निकर्य तो जड है, वह प्रमाण नहीं हो सकता। इसी प्रकार संशय-विपर्यय अनध्यवसाय भी असम्यक ज्ञान है।
दूसरे परिच्छेद में प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान भेदों में स्पष्ट प्रमाण को प्रत्यक्ष कहा है और उसे सांव्यावहारिक और पारमार्थिक भेद से दो प्रकार का बताया है । सांव्यावहारिक ज्ञान इन्द्रिय निबंधन और अनिन्द्रिय निबंधन से दो प्रकार का है जो पुनः अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा उप भेदों में चार-चार प्रकार के हैं। इसी प्रकार पारमार्थिक प्रत्यक्ष भी विकल और सकल भेद से दो प्रकार का है। विकल ज्ञान अवधि और मन:पर्यय से दो प्रकार का है जिनमें अवधि से रूपी द्रव्य और मनः पर्यय से मनो द्रव्य जाने जाते हैं। सकल ज्ञान अशेष सामग्री संभूत समस्त ज्ञानावरणी कर्मों के क्षयोपक्षम से होता है और इसके द्वारा निखिल द्रव्यों के पर्यायों का साक्षात्कार होता तुलसी प्रज्ञा, लाडनं-खंड २३, अंक ४
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