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'सत्वानामस्ति नास्तीति न चैतं सविकल्पकम्' मनोरथनदि ने प्रमाणवात्तिक की वृत्ति में कहा है
दुःखाद् दुःखहेतोश्च समुद्धरणाकमता करुणा' दुःख का ज्ञान होने पर पूर्व संस्कार के प्रभाव से दया स्वभावतः ही उत्पन्न होती है । पूर्व संस्कार का अर्थ है जन्मजात संस्कारों के अनुरूप प्रवृत्ति । महापुरुषों के सम्मुख दुःख होते ही दया उत्पन्न हो जाती है । सब दुःखों का मूल कारण मोह है । बौद्ध मत में सत्वाग्रह या आत्मग्रह ही मोह का मूल है, जब इसका उन्मूलन हो जाता है तो किसी के प्रति द्वेष नहीं रहता। धर्मकीति ने कहा है
'दुःखसन्तानसंस्पर्शमात्रेणव दयोदयः' प्राचीन बौद्ध धर्म के मुमुक्षुओं में तीन आदर्श प्रधानरूप से प्रचलित थे-क्षावक, प्रत्येक बुद्ध और सम्यक् संबुद्ध । श्रावक दुःख निवृत्ति के मार्ग से परिचित थे । यह मार्ग बोधि अविध ज्ञान है । चार आर्य सत्यों में यह मार्ग सत्य है । बोधि या ज्ञान उन्हें स्वतः प्राप्त नहीं होता था। उसके उदय के लिए बुद्धादि महापुरुषों के उपदेश से होता है । इसलिए इसे औपदेशिक ज्ञान कहते हैं लेकिन उपदेश मात्र पर्याप्त नहीं है । उपदेशों को साधना द्वारा चरितार्थ करने से जो भगवत्ता प्राप्त होती है । इस साधना का अंग है पारमिता, दान, शील, शांति, वीर्य, ध्यान, प्रज्ञा। इसी से महाबोधि की उपलब्धि होती है, इसे प्राप्त करने पर बुद्धत्व और भगवत्ता एक एवं अभिन्न हो जाते हैं । यह मानव जीवन का उच्चतम आदर्श या अन्तिम लक्ष्य है । यह बौद्ध धर्म और सनातन धर्म का मिलन बिंदु हैं दोनों का अन्तिम ध्येय एक होने के कारण उनका एकत्व स्थापित हो जाता है। बुद्ध को विष्णु का अवतार मानने से बुद्ध और विष्णु एक हो जाते हैं । विचारों में भिन्नता प्रतीत होते हुए भी तात्विक एकता निष्पन्न हो जाती है । जयदेव के दशावतार स्तोत्र में बृद्ध को विष्णु का अवतार माना गया है एवं इसी समय के शिल्प में बुद्ध के चार हाथों की प्रतिमा मिलती है। भारतीय जन जीवन एवं धार्मिक भावनाओं पर बौद्ध धर्म का व्यापक प्रभाव पड़ा। ऐसे तो सभी धर्मों में अहिंसा, करुणा एवं मंत्री को प्रमुखता दी गई है । ये भावनाएं ही मानवीय संवेदन और नैतिकता एवं आध्यात्मिकता से गहरा संबंध रखती हैं। लेकिन बुद्ध ने अपने जीवन के माध्यम से इन सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार के लिए अपना समस्त जीवन समपित कर दिया । इसका सीधा प्रभाव यज्ञ संस्थानों पर पड़ा । यज्ञ में होती हुई पशु बलि बंद प्रायः होने लगी। इसके साथ-साथ यज्ञ द्वारा स्वर्ग कामना एवं देवताओं पर लोगों के निर्भर होने की भावना के विश्वास में क्षीणता आ गई। लोगों के मन में आत्म विश्वास जगने लगा। बुद्ध की वाणी 'आत्मदीपो भव' प्रकाश के लिए तुम स्वयं अपना दीपक बनने की विचारधारा ने नई ऊर्जा एवं प्रेरणा प्रदान की। सैद्धांतिक रूप से वैदिक एवं उपनिषदों में प्रतिपादित धर्म, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, इंद्रिय-निग्रह आदि नीति धर्म समान रूप से 'धम्मपद' में पाए जाते हैं। लेकिन एक ऐसा समय था जब वैदिक धर्म संकुचित संप्रदाय बनता जा रहा था-जहां वर्णाश्रम का विभाजन गुणकर्म पर आधारित न होकर वंशानुक्रम से अपनाये जाने लगा इससे छुआछूत, जात
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तुलसी प्रमा
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