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संगीत का प्राणतत्त्व स्वर-स्थापना तथा स्वर-संवाद
भारतीय शास्त्रीय संगीत में श्रुति, स्वर, ग्राम, मूच्र्छना एवं राग-रागनी का विशेष महत्त्व है | स्वर स्थापना और स्वर-संवाद उसका मूल तत्त्व है । पंडित विष्णु नारायण भारतखण्डे जी ने उसे छोड़कर थाट प्रणाली के अनुसार राग-रागनियों को दस थाटों में वर्गीकृत किया है। उनका प्रयास सराहनीय है किन्तु भारतीय संगीत के मूल तत्त्व को बनाए रखना भी आवश्यक है ।
थाट प्रणाली की अपनी विशेषता है किन्तु सात स्वरों के थाट में ९ स्वरों वाले राग उत्पन्न करने पर विद्रूपता ही बढ़ेगी । रागों के वादी संवादी स्वरूप में भी थाट प्रणाली से मुश्किलें दर पेश होंगी ।
जयचंद शर्मा
एक तरफ पुरुष और स्त्री, पुत्र, पुत्र वधु साहित्य है तो दूसरी ओर उक्त प्रणाली के विपरीत संगीत के प्राचीन साहित्य से आज का संगीतज्ञ बहुत दूर हो गया है। वह राग गाने, बजाने के समय निर्धारण को भी बेकार मानता है ।
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श्रुत्यंतर ग्राम, मूर्च्छना आदि थाट प्रणाली का साहित्य है ।
यहां तक कि
स्वतन्त्रता से पूर्व का युग महफिल, मुजरों का था । महफिलों की शोभा बढ़ाने के लिए अधिकतर गणिकाओं को आमंत्रित किया जाता था। उनकी स्वर - संगत सारंगीबादक तथा ताल-संगत तबला वादक करते थे । महफिलें रातभर जमतीं । अनेक रागरानियों को सुनने वाले रसिक जन अपने मनपसन्द की बंदिशें सुनने की फरमाईशें करते । रागों में प्रयुक्त होने वाले कोमल, तीव्र स्वरों को सारंगीवादक को दरसाना होता । इसके लिए वह तारों एवं तरंगों को इस प्रकार मिलाता कि रात्रि में गाई जाने वाली समस्त राग-रागनियां उस मिलान में बज जाएं। क्योंकि महफिल में प्रत्येक राग के लिए बार- बार सारंगी के तार मिलाना सम्भव नहीं था । इसी मिलान की क्रिया को उस्तादों ने थाट नाम से संबोधित किया, जो किसी न किसी राग के पर नाम से पहिचाने जाते थे । अतः थाट प्रणाली भरतखण्डे युग के पूर्व से प्रचलित थी ।
भरतखण्डेजी ने दक्षिण भारत के संगीतज्ञ पं० व्यंकटमखी द्वारा निर्धारित ७२ थाटों को आधार मानकर उनमें से दस थाटों का चयन किया और उत्तर भारत में प्रचलित राग-रागनियों को उनमें ढाल दिया । उन्होंने घाट संबंधी कुछ नियम भी बनाये । जैसे - " घाट में क्रमानुसार सात स्वर होने आवश्यक हैं ।"
या संबंधी उपर्युक्त नियम पर विचार करते हैं, तो शंका उत्पन्न होती है कि सात स्वरों के थाट द्वारा आठ और नौ-स्वर वाले राग कैसे उत्पन्न हो गए, जबकि वे स्वर उक्त थाट में है ही नहीं ।
तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खंड २३, अंक ४
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