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विभाग १ अ-क्या यह लोक शाश्वत है ?
ब- क्या यह लोक अशाश्वत है ? स-क्या यह लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनों हैं ?
द--क्या यह लोक न शाश्वत न अशाश्वत है ? विभाग- २ अ-क्या यह लोक अन्तवान है ?
ब-क्या यह लोक अन् अन्तवान है। स-क्या यह अन्तवान एवं अन् अन्तवान दोनों हैं ?
द-क्या यह लोक न अन्तवान है न अन् अन्तवान है ? विभाग-३ अ-क्या तथागत मृत्यु के पश्चात् रहते हैं ?
ब-क्या तथागत मृत्यु के पश्चात् नहीं रहते हैं ? स-क्या तथागत मृत्यु के पश्चात् रहते हैं, यह भी नहीं है, नहीं
रहते हैं, यह भी नहीं है ? विभाग-४ अ-क्या जीव शरीर से अभिन्न है।
ब-क्या जीव शरीर से भिन्न है ? शन्यवाद
बौद्ध दर्शन माध्यमिक मत में अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति करता है । निर्वाण के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हमें इसी स्तर पर पहुंचने से होता है । भारतीय परम्परा में मोक्ष को चतुर्थ पुरुषार्थ माना गया है। निर्वाण के संबंध में यह विचारणीय है कि मूलतः निर्वाण और मोक्ष में आचार्यों ने साम्य बताया है। यहीं परम शांति मिलती है तथा दुःख की आत्यान्तिकी निवृत्ति होती है । बुद्ध के उपदेश का परम लक्ष्य इसी स्तर की प्राप्ति रही है । तत्त्व-दृष्टि से न तो बाह्य सत्ता है और न 'अन्तःसत्ता ही है । सभी शून्य के गर्भ में विलीन हो जाते हैं । यह न सत् है और न सत् से अलग है । वस्तुतः यह 'अलक्षण' है । विज्ञानवाद यद्यपि एकमात्र 'चित्त' को ही परमतत्व मानता है तथापि विचार करने से यह स्पष्ट है कि यह द्वैत का प्रतिपादन करता है। अभेद का स्वरूप विज्ञानवाद में तत्त्वदृष्टि से नहीं मिलता और जब तक अद्वैत-तत्त्व की प्राप्ति नहीं होती तब तक साधक की जिज्ञासा की निवृत्ति नहीं हो सकती।
__ यह अद्वैतवाद शून्यवाद में प्रतिपादन किया गया है । इस मत में शून्य ही एकमात्र तत्त्व है । न सत् है, न असत्, न सत् और न असत् दोनों हैं, न दोनों से भिन्न ही है । इस प्रकार इन चारों सम्भावित कोटियों से विलक्षण ही एक तत्त्व है, जिसे माध्यमिकों ने अपना परमतत्त्व कहा है। इसीलिए तो इस तत्त्व को अलक्षण कहा है।
बुद्ध ने अपने जीवन में मध्यम मार्ग का अनुसरण किया था न तो वे तपस्वी होकर जंगल ही में अपने जीवन का अन्त करना चाहते थे और न संसारी होकर ही रहना पसन्द करते थे। उन्होंने ज्ञान प्राप्त कर संसार के कल्याण के लिए अपना जीवन लगाया। इसलिए मध्यम मार्ग का अनुसरण करना उन्होंने अपने जीवन का चरम लक्ष्य बनाया । अतएव यह मत माध्यमिक नाम से है। शून्यवाद में बुद्ध के द्वारा कहे गये चरम लक्ष्य की प्राप्ति होती है । शून्य ही को इस मत में परम तत्त्व माना गया है इस
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तुलसी प्रज्ञा
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