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कहलाता है ।
४. योगिविज्ञान- -ज्ञान चार प्रमाणों अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान, अनुमान ज्ञान, उपमान ज्ञान (तुलनात्मक ज्ञान ) एवं शब्द ज्ञान ( मनीषियों द्वारा निर्दिष्ट ) से जो परम ज्ञान प्राप्त होता है उसे योगिज्ञान कहते हैं । परंतु बौद्ध धर्म शब्द प्रमाण को स्वीकृति नहीं देता । इसलिए उपरोक्त तीन ज्ञान प्रमाणों के माध्यम से जो ज्ञान प्राप्त होता है वही योगिज्ञान है ।
स्कंध
रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान ये पांच स्कंध हैं । रूप स्कंध जगत् के समस्त भूत एवं भौतिक पदार्थों के अर्थ में दर्शन में प्रयोग किया गया है । वास्तविक रूप में रूप का प्रयोग स्थूल जड़ भूतों के लिए होता है, जिससे जीव का स्थूल शरीर बनता है । वेदना आदि शेष चार स्कंधों का मन तथा मानसिक वृत्तियों के लिए प्रयोग किया जाता है । इन्हीं पांच स्कंधों से व्यक्तित्व का निर्माण होता है और पांचों स्कंध अन्ततोगत्वा निर्वाण प्राप्ति के साधन बन जाते हैं ।
बौद्ध साहित्य
बौद्ध धर्म में नीति के प्रचारार्थ विपुल साहित्य की रचना हुई है, इनमें कुछ प्रमुख कृतियों का उल्लेख किया जा रहा है जो त्रिपटक के नाम से विख्यात है । बुद्ध के शिष्यों ने उनके वचनों को तीन भागों में विभक्त किया । विनयपिटक, सुत्तपिटक, अभिधम्मपिटक ।
विनयपिटक - इसमें आचार-विचार के नियमों का वर्णन है, इसी के आधार पर संघ के सभी भिक्षु एवं भिक्षुणी, प्रतिदिन कार्य करते थे ।
सत्तपिटक - इसमें 'धम्म' के संबंध में समय-समय पर बुद्ध ने उपदेश दिये थे एवं दृष्टांतों के द्वारा लोगों को समझाया था उनका संग्रह है जो 'निकाय' के नाम से प्रसिद्ध है ।
अभिधम्मपिटक - इस पिटक में आध्यात्मिक दृष्टि के द्वारा बुद्ध के वचनों के आधार पर विवेचन पूर्ण दार्शनिक विचार का प्रतिपादन हुआ । बौद्ध दर्शन के लिए इन ग्रंथों का अध्ययन बहुत ही आवश्यक है ।
बौद्ध सिद्धांत के विभिन्न मत
वैभाषिक मत -
इसके सिद्धांतों को ग्रन्थ बद्ध करने का प्रथम प्रयत्न बुद्ध-निर्वाण के तीन सौ वर्ष पश्चात् कात्यायनी - पुत्र ने किया । उन्होंने ज्ञानप्रस्थान शास्त्र नाम का एक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखा । यह संग्रहरूप ग्रन्थ छः भागों में है जिसमें तत्त्वों का बहुत विस्तृत विचार है । इसी से यह मत वैभाषिक कहा जाने लगा । वैभाषिक मत के अनुसार जो कुछ प्रत्यक्ष है वह ज्ञाता और अर्थ (ज्ञान विषय) के स्पष्ट संपर्क का परिणाम है । वे ज्ञान ( मन ) और ज्ञेय (जगत) दोनों की सत्ता को मानते थे । अस्थिरता उनमें पायी जाती है जो प्रकट या व्यक्त है उसका आधार किसी स्थिर पर निर्भर रहता हैं । प्रत्येक
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तुलसी प्रज्ञा
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