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कर्म और भक्ति
बुद्ध ने बराबर कहा कि बुद्ध मार्ग दिखाते हैं, मार्ग पर चलना और गन्तव्य तक पहुंचना पथिक का अपना काम है । बुद्ध ने प्रचलित कर्मकांड को छोड़ा, क्योंकि उनके विचार में इसमें भी देवताओं की सहायता पर भरोसा किया जाता है । यह एक प्रकार की पराधीनता ही है । साधक को स्वतन्त्र होकर साधना करनी चाहिए । बुद्ध ने आत्मनिर्भरता का उपदेश दिया। 'आत्मदीपो भवः' महायान ने इसे सुगम बनाने के लिए भक्ति को प्रधनता दी है, यह मार्ग सुलभ होने के कारण व्यापक रूप से अपनाया गया। अहिंसा और करूणा
बुद्ध ने कर्म को महत्व देते हुए यह भी कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्मों का फल मिलता ही है । बुद्ध ने अहिंसा पर बल दिया । पंचशील में इसका स्थान प्रथम है। संसार में इतना दुःख पड़ा है कि किसी मनुष्य को हिंसा द्वारा इसकी मात्रा बढ़ाने का अधिकार नहीं यह अहिंसा का मूल तत्व है । महायान ने अहिंसा के साथ-साथ करूणा को विशिष्ट स्थान दिया। मानवीय संवेदना, उदारता और मित्रता सहिष्णुता करूणा के साथ संलग्न है। इन्हें अपनाने से जीवन उदात्त हो जाता है। कारण कार्य नियम
कारण-कार्य संबंध हमारे चितन के प्रमुख प्रत्यय हैं । इस प्रत्यय में दो निम्न धारणाएं सम्मिलित हैं
(१) प्रत्येक घटना किसी कारण का कार्य होती है।
(२) यदि कोई कारण एक अवसर पर किसी कार्य को उत्पन्न करता है, तो उसी हालत में, वह सदा उस कार्य को उत्पन्न करेगा । पहली धारणा को कारण-कार्य नियम और दूसरी को एकरूपता का नियम कहते हैं । बुद्ध ने दुःख को व्यापक पाया
और इसकी निवृत्ति को अपना लक्ष्य बनाया । इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए दुःख के कारण को जानना आवश्यक था । बुद्ध को प्रतीत हुआ कि तृष्णा दुःख का कारण है । यह दुःख और दुःख का कारण बुद्ध के चार आर्य सत्यों में है । दो पहले सत्य हैं, व्यक्ति जीवन से क्यों चिपटा रहता है, इसका कारण तृष्णा है । बुद्ध ने कहा कि इस तृष्णा का कारण अविद्या है, व्यक्ति भूल में समझता है कि उसका स्वतन्त्र अस्तित्व है और कल्पित अस्तित्व को बनाये रखने के लिए बेकार यत्न करता रहता है । यदि यह ज्ञान हो जाय कि वह तो सामान्य जीवन का अंश है तो वह अपने यत्न की ओट में छिपे हुए अहंकार को आप ही छोड़ देगा। इससे वह अपने सामान्य व्यक्तित्व के अनुबंध से मुक्त हो जायेगा। व्यक्तित्व की समाप्ति का अन्तिम लक्ष्य निर्वाण है। इस तरह बुद्ध ने अविद्या में दुःख का कारण देखा । बुद्ध ने कारण कार्य संबंध को अविद्या, तृष्णा दुःख तक सीमित नहीं रखा, अपितु अविद्या और तृष्णा के मध्य में और दुःख के मध्य में और कड़ियां रखकर एक कार्य की दीर्घ शृंखला बना दी। शृंखला की इन कड़ियों को 'निदान' कहते हैं । मूल कारण अविद्या से अन्तिम कार्य दुःख तक बारह निदान है जो निम्न अनुसार हैं
तुलसी प्रज्ञा
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