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(३) नित्य आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं, चेतना और इसके अंश सब अनित्य
है ।
बनने और टूटने का
।
( १ ) जो बना है, वह अवश्य टूटेगा । यह ठीक है, परन्तु अर्थ क्या है ? किसी वस्तु का बनना कुछ अंशों का वियोग है अन्तिम अंश तो न बनते हैं, न टूटते हैं, यदि वे बने या टूटे तो वे अन्तिम अंश नहीं, उनकी बनावट में अन्य अंश विद्यमान हैं । दृष्ट जगत् परमाणुओं के संयोग का फल है, और जो कुछ वास्तव में 'परम- अणु' है, वह मिश्रित नहीं हो सकता। उनके संघात से ही विभिन्न पदार्थ व वस्तुएं बनती हैं। इन संधानों में परिवर्तन या विघटन होता रहता है । यही कारण है कि संसार में तो कुछ है वह अस्थिर है । प्रत्येक वस्तु की अवस्था बदलती रहती है ।
(२) दुःख के अस्तित्व को कोई भी इन्कार नहीं सकता । परन्तु जैसा हम देख चुके हैं, जीवन में दु:ख के साथ सुख भी मौजूद है। सुख देर तक नहीं रहता तो दुःख भी अस्थिर ही होता है । जीवन में व्याप्त दुःख को बुद्ध ने बड़ी गहराई से देखा और इस दुःख के कारण को खोजते हुए उन्होंने पाया कि तृष्णा ही एक मात्र दुःख का कारण है जितना हम अपनी इच्छाओं और वासनाओं को कम करेंगे उतने अनुपात में हम दुःख से मुक्त हो जायेंगे ।
(३) बुद्ध की दार्शनिक शिक्षा में सबसे अधिक महत्वपूर्ण अंश आत्मा के संबंध में है जिनका पांच स्कंधों में वर्णन किया हैं, ये पांच स्कंध हैं
शरीर दृष्टि पदार्थों में एक | उपलब्ध ज्ञान, भाव और क्रिया प्रत्येक चेतन अवस्था के तीन पक्ष हैं । सामान्य चेतना इन पक्षों का आश्रय है । इन पांचों अंशों की निःसंदेह अस्थिर परंतु यह धारणा कि मनुष्य में इनके अतिरिक्त कुछ नहीं यह विवादास्पद है । बुद्ध का उद्देश्य जन्म-मरण के चक्र से छूटना था उन्होंने अपने पूर्व जन्मों का जिक्र किया । परीर के अंश तो मृत्यु होने पर बिखर जाते हैं । तब आता और जाता कौन है ? चक्र में कौन पड़ा है ? बुद्ध के नियमानुसार जब तक कर्म समाप्त नहीं हो जाता इसका फल चरित्र के रूप में कायम रहता है और एक जीवन से दूसरे जीवन में पहुंचता है । अस्थिरता की दुनिया में कर्म-नियम स्थिर है, पुण्य और पाप का फल अवश्य मिलता है। यहां फिर वही प्रश्न उठता है— कर्म करता कौन है ? बुद्ध के अनुसार, कर्म होता है और फल भुगतता है । अनुभववाद हमें इसी परिणाम तक पहुंचाता है। इसके अतिरिक्त आत्मा के संबंध में बुद्ध कोई स्पष्ट उत्तर नहीं देते । बुद्ध या तथागत इस प्रश्न पर मौन हो जाते हैं । वे नैतिक जीवन पर बल देते हैं । इसी से परम पद प्राप्त किया जा सकता है। इस जीवनकाल में दुःख से निवृत्ति हो जाती है । बुद्ध ने अपनी यात्रा के दौर में जो उपदेश दिया वही परवर्ती आचार्यों के लिए धर्म और दर्शन का आधार बना है ।
बौद्ध धर्म की कई शाखाएं, प्रशाखाएं, कालांतर में आचार्यों के मतानुरूप बनीं । इनमें दो प्रमुख शाखाएं थी - हीनयान और महायान ।
हीनयान
बौद्ध धर्म की प्राचीन शाखा हीनयान है । हीनयान मत के अनुसार दुनिया में
तुलसी प्रज्ञा
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