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दिसेस निर्वाण कहलाता है। पांचों स्कंधों का निरोध होने पर जिस निर्वाण की प्राप्ति होती है वह निरापादिसेस निर्वाण कहलाता है ।
बुद्ध का शाश्वत उपदेश
बुद्ध ने शाश्वत उपदेश द्वारा जन-जन में धर्म के प्रति आस्था और नैतिक जीवन यापन की एक श्रेष्ठ पद्धति बताई है । बुद्ध के उपदेशों के संबंध में कहा जाता है कि ये उपदेश प्राचीन ऋषियों के उपदेश से किसी प्रकार भिन्न नहीं थे । इसलिए जनता में इनका पूर्ण आदर हुआ । इनसे प्रभावित होकर बुद्ध के कहे हुए मार्ग का लोगों ने अनुसरण किया । संक्षेप में बुद्ध के उपदेशों का सार निम्नलिखित है
(१) संपत्ति विनाशी और निःसार है, यह जानकर धर्मानुसार भिक्षुओं, ब्राह्मणों, गरीबों और मित्रों में दान करो, दान से श्रेष्ठतर मित्र कोई नहीं ।
(२) निर्दोष, पवित्र और निष्कलंक शीलधारण करो, शील ही श्रेष्ठता का आधार है जैसे पृथ्वी चराचर का आधार है ।
(३) धर्म, शम, शक्ति, ध्यान, ज्ञान आदि का आचरण करो जिससे कि जन्म के दूसरे छोर पर पहुंच कर तुम 'जिन' बन सको ।
(४) दया, क्षमा, प्रसन्नता एवं औदासीन्य का सदा ध्यान रखो। इससे यदि तुम्हें उच्चता नहीं भी मिली तो ब्रह्मविहार अवश्य मिलेगा ।
(५) काम, विचार, प्रीति तथा सुख-दुःख को ध्यान द्वारा निरस्त करके ही तुम बुद्धत्व प्राप्त कर सकोगे ।
(६) तत्वों की उत्पत्ति इच्छा से नहीं, काल से नहीं प्रकृति से नहीं, स्वभाव से भी नहीं । न वे ईश्वर से जन्में हैं। वे अविद्या और तृष्णा से जन्में हैं ।
(७) जहां प्रज्ञा नहीं है वहां ध्यान नहीं है जहां ध्यान नहीं है वहां प्रज्ञा नहीं है । जिसने इन दोनों को प्राप्त कर लिया है उसके लिए संसार सागर गोपद के समान
है ।
(८) धार्मिक रीति रिवाज, गलत धारणाएं, मिथ्या दृष्टि, शंका एवं विचिकित्सा तीनों बंधन हैं । इनसे मुक्त होने का प्रयास करें ।
(९) हानि, लाभ, हर्ष और विषाद, कीर्ति और इन आठों द्वन्द्वों के प्रति समान भाव रखना चाहिए। करो ।
(१०.) बुद्ध ने कहा, हे पुरुष श्रेष्ठ, संसार के इस असार वृक्ष से निःसंग हो जाओ क्योंकि तुमने स्वयं देख लिया है कि यह सब अनित्य है, अनात्म है और अस्थान है ।
aa का दार्शनिक सिद्धांत
बुद्ध की शिक्षा में नीति प्रधान थी । उनका दार्शनिक सिद्धांत तीन धारणाओं में विवेचित है
(१) संसार में जो कुछ है, अस्थिर है, जो बना है वह अवश्य टूटेगा । (२) जीवन दुःख से भरा है, दुःख की निवृत्ति जीवन की समाप्ति के साथ हो सकती है ।
सय २३ अंक ४
अपकीर्ति, निन्दा और स्तुति इनमें भेद का विचार मत
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