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रत्नपाल
महाप्रज्ञ कृत रत्नपालचरित का नायक रत्नपाल है। उसके युवक-शरीर की सुन्दरता अप्रतिम थी। स्वर्गीय युवति उसके रूप-लावण्य पर मुग्ध होकर उसे अपने पति के रूप में वरन कर लेती है ।" युवति स्तुति करती है जिसमें राजा के विभिन्न गुणों पर प्रकाश डाला गया है। वह वीर शिरोमणी, शत्रुरूपी अंधकार के लिए सूर्य, जगत् के लिए अगम्यगति, रम्यमति, वाञ्छाकल्पतरु, पृथ्वीपति आदि गुणों से युक्त है। भ्रमणशील युवक, अनुरागी एवं श्रमणधर्म में अनुरक्त के रूप में उपलब्ध होता है। अंतिम परिणति श्रामण्य के साथ मोक्ष धर्म में होती है । रत्नवती
यह रत्नपाल चरित की नायिका है। इसके मुग्ध रूप लावण्य का निदर्शन मिलता है। आश्चर्य रस के साथ काव्य-धरातल पर इसका अवतरण होता है। वह उत्साह पारायण, स्तुति-संगायिका, रत्नपालमय जीविता, विरह व्यथिता एवं अंत में श्रमणधर्मासक्ता के रूप में दिखाई पड़ती है । मन्त्री
रत्नपाल चरित्र का पात्र मन्त्री राजा रत्नपाल का अनन्य सहायक के रूप में काव्य-पटल पर उपस्थित होता है । अहर्निश राज्य एवं राजा के विकास में आरक्त है। अंत में श्रामण्य धर्म स्वीकार करता है। __इस प्रकार विभिन्न पात्रों के यथोचित रूप के संधारण में महाकवि महाप्रज्ञ अधिक सफल हुए हैं। प्राकृतिक सौन्दर्य
प्रकृति जीवन सहचरी है । उसका प्रत्येक कण मानवीय जीवन के लिए निराकांक्ष सहायक है । कवि की चेतना जितनी अधिक विकसित होती है उतना ही वह प्रकृति की सुन्दरता में रमण करता है। आचार्य महाप्रज्ञ एक नैष्ठिक महाव्रती और संसार त्यागी सन्यासी होने के नाते अन्य कवियों की तरह इनका वर्णन खुलता नहीं-यह सत्य है लेकिन रत्नपालचरित एक ऐसा काव्य है कि उसमें आचार्य महाप्रज्ञ महाकवि महाप्रज्ञ के रूप में उपस्थित होते हैं। संबोधि के महाप्रज्ञ एक धर्मोपदेश एवं मार्गदर्शक के रूप में, अश्रुवीणा के महाप्रज्ञ भक्तकवि के रूप में उपस्थित होते हैं। रत्नपालचरित में प्रथम चार सर्गों में इनका विशुद्ध कवित्व प्रस्फुटित हुआ है पांचवें सर्ग स्वीकृत मार्ग के अनुरोध में आसक्त हो गया है। रत्नपालचरित्र में ही प्रकृति-माधुरी का मौग्धत्व दर्शन होता है। वहां प्रकृति मानव जीवन की सहायिका, उद्बोधिका एवं परोपकारनिष्ठिता के रूप में उपस्थित है। रात्री का मानवीय रूप में उपस्थान सुन्दर एवं हार्द है। वृक्षों का क्षमापुत्र, पृथ्वी सर्वसहा नायिका एवं पशु-पक्षी जगत् मनुष्य-सहचर के रूप में उपस्थित है।
अन्त में आचार्य महाप्रज्ञ आचार्यत्व के निर्वाहक तो है ही सौन्दर्य के सम्यक् आराधक भी है। यह कहा जा सकता है कि सौन्दर्य-बोध उसी का विषय हो सकता है जिसका बाहर भीतर सुन्दर हो और यह सुन्दरता ध्यान-साधना से लन्ध होती है।
खण्ड २३, अंक ४
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