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कश्यप की अध्यक्षता में प्रथम संगोष्ठी राजगृह में हुई । बुद्ध ने पट्ट शिष्य आनन्द के सहयोग से विनयपिटक का संकलन किया गया ।
चार आर्यसत्य
ध्यानावस्था बुद्ध ने चार आर्यसत्यों का अनुभव किया, जिनका कर्तव्य-बोध के रूप में विवेचन किया जाता है, वे निम्नलिखित हैं
(२) दुःख का कारण
(१) दुःख (३) दुःख का अन्त
(४) दुःखों के अन्त के उपाय ।
बुद्ध ने जरा-मरण के रहस्य को समझ कर चार आर्यसत्यों का प्रतिपादन किया । इस भवचक्र में उन्होंने दुःख का हेतु 'प्रतीत्यसमुत्पाद' द्वारा स्पष्ट किया 1 प्रतीत्य अर्थात् कार्य के प्रति कारणों के इकट्ठा होने पर और समुत्पाद अर्थात् उत्पति । इसका आशय है कि ऐसे कारण कौन-कौन से हैं, जिनके होने पर जरा-मरण रूप दुःख उत्पन्न होता है । बुद्ध ने उसके बारह कारण गिनाये, जिसे वे भवचक्र कहते हैं, ये हैं
१. अविद्या २. संस्कार ३. विज्ञान ४. नामरूप ५. षड़ायतन ६. स्पर्श ७. वेदना ८. तृष्णा ९. उपादान १०. भव ११. जाति और १२. जरा-मरण । तथागत के भवचक्र का स्वरूप इस प्रकार समझा जा सकता है
१. अविद्या
(भूत जीवन )
२. संस्कार
३. विज्ञान
४. नामरूप
५. बड़ायतन ६. स्पर्श
७. वेदना
८.
तृष्णा ९. उपादान
१०. भव
११. जाति
१२. जरा-मरण
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( वर्तमान जीवन )
प्रतीत्यसमुत्पाद
कोई भी जीव दुःख से मुक्त नहीं है तथा दुःख किसी को प्रिय नहीं है । उससे छुटकारा पाने के लिए सबको प्रयत्न करना चाहिए। इसके लिए दुःख के कारणों को जानना आवश्यक है, बिना कारण के कार्य नहीं होता और कारण के नाश के बिना कार्य का नाश नहीं हो सकता। इसलिए सभी को दुःख के कारणों को जानना चाहिए और उसके नाश के उपाय ढूंढ़ने चाहिए । हमारे दुःखों का मूल कारण अविद्या है जिसकी अद्भुत शक्ति से कारणों की एक परम्परा हो जाती है । इस कारण परम्परा को प्रतीत्य-समुत्पाद कहते हैं । एक वस्तु की प्राप्ति होने पर दूसरी वस्तु की उत्पत्ति
तुलसी प्रज्ञा
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( भविष्य जीवन )
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