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खेदं स्वेदो बहिरपनयजात आकस्मिकेन प्रोल्लासेनाऽभ्युदयमयता दर्शनाद् विश्वभर्तुः । कामं भ्रान्तां किमपि किमपि प्रस्मरन्तीं स्मरन्तीं,
स्वस्थां चक्रे पुलकिततनुं चन्दनां स्मेरनेत्राम् ॥3 अर्थात् विश्वभर्ता भगवान महावीर के दर्शन से चन्दनबाला को अकस्मात् जो अपार हर्ष का अनुभव हुआ उससे उसके शरीर से स्वेद टपकने लगा। उस समय ऐसा लगता था मानो वह स्वेद चन्दनबाला के अंतर्वर्ती संताप को बाहर खींच लाये हैं । जो कुछ क्षण पहले दिङ्मूढ़ सी बनी हुई अर्ध-विस्मृति की स्थिति में डुबकियां लगा रही थी, अब वह स्वस्थ हो गई। उसका शरीर पुलकित हो उठा और आंखें विकसित हो गई। संबोधि के महावीर
संबोधि में भगवान् के उदात्त रूप का दर्शन होता है। जगदोद्धारक, तीर्थप्रवर्तक और नित्यवर्धन शील रूप के निरूपण के साथ ही संबोधि का प्रारंभ होता
ऐं ॐ स्वर्भूभुवस्त्रय्यास्त्राता तीर्थंकरो महान् । वर्धमानो वर्धमानो ज्ञानदर्शन सम्पदा ।। अहिंसामाचरन् धर्म, सहमानः परीषहान् । वीर इत्याख्यया ख्यातः परान् सत्त्वानपीडयन् । अहिंसा तीर्थमास्थाय तारयन् जनमण्डलम् ।
चरन ग्रामानुग्रामं राजगृहमुपेयिवान् ।।" उपर्युक्त श्लोक त्रय में भगवान के त्रैलोक्य-तारक, महान् तीर्थकर, वर्धमान, ज्ञान-दर्शन सम्पदा में वर्धनशील, अहिंसाचारी, परीषहजयी, सत्त्वसंरक्षक (जीवसंरक्षक), वीर, अहिंसा रूप तीर्थ के संस्थापक, संसार के तारक, पादविहरणशील आदि गुणों का समुपस्थापन सहजरूप में किया गया है।
संबोधि के अन्त में भगवान के अप्रतिम रूप-लावण्य का संरूपण प्राप्त होता है । मेघकुमार स्तुति करते हुए कहता है
धर्मवरचातुरन्त-चक्रवर्ती महाप्रभः । शिवोऽचलोऽक्षयोऽनन्तो, धर्मदो धर्मसारथिः ।। जिनश्च जापकश्चासि तीर्णस्तथासि तारकः ।
बुद्धश्च बोधकश्चासि मुक्तस्तथासि मोचकः ।। अर्थात् प्रभो ! आप धर्म-चक्रवर्ती हैं। महान् प्रभाकर हैं, शिव हैं, अचल हैं, अक्षय हैं, अनन्त हैं, धर्म का दान करने वाले हैं और धर्मरथ के सारथि हैं। आप आत्मजेता हैं तथा दूसरों को विजयी बनाने वाले हैं। स्वयं संसार सागर से तर गये हैं, दूसरों को उससे तारने वाले हैं। आप बुद्ध हैं दूसरों को बोधि देने वाले हैं। स्वयं मुक्त हैं दूसरों को मुक्त करने वाले है।
इस प्रकार भगवान् महावीर के कमनीय चरित्र का उपस्थापन आचाय महाप्रज्ञ ने किया है।
तुलसी प्रज्ञा
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