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विचारणीय है । वन्य व्यत्ययों के विपर्यास में, यह व्यत्यय उनके स्वतंत्रचेता होने का प्रचंड संकेत देता है ।
६. बारह भावनाओं और दस सत्यों का क्रम
जैनों में अध्यात्मपथ की ओर बढ़ने के लिये ध्यान और भावनाओं का बड़ा महत्व है । विभिन्न ग्रंथों में उनके नामों और क्रमों में अंतर पाया जाता है । इनमें परिवर्तन भी पाया जाता है । स्थानांग (पेज १२२) एवं राजवार्तिक के विवरणों से दस सत्यों के नाम, क्रम और अर्थभेद स्पष्ट हैं ।
७. नयों का क्रम
जैनों में नय सिद्धांत का क्रमिक विकास हुआ है, ऐसा प्राय: सभी विद्वान् स्वीकार करते हैं । बालचंद शास्त्री ने अपने ग्रंथ में (पेज १६७ पर) बताया है कि धवला ( ४ / २ ) में नैगम, व्यवहार एवं संग्रह के रूप में नयों का क्रम है जबकि तत्वार्थ सूत्र (१.३३ ) में नंगम, संग्रह एवं व्यवहार नय का क्रम है ।
८. इन्द्रिय और इंद्रिय विषयों का क्रम
जैन आचार-विचार में इन्द्रिय जय का प्रमुख स्थान है । इन्द्रियां मन की सहायता से राग-द्वेष का कारण और फलतः, कर्मास्रव और कर्मबन्ध की स्रोत हैं । भगवती २.१, स्थानांग १०.२३ और प्रज्ञापना १५.१ में इन्द्रिय और इन्द्रिय-विषयों का क्रम श्रोत, चक्षु, घाण, रसन और स्पर्शन के आधार पर दिया गया है । मूलाचार गाथा १०९१ में भी इन्द्रियों के आकार का वर्णन इसी आधार पर दिया गया है। इसके विपर्यास में, दिगंबर ग्रन्थों एवं तत्त्वार्थ सूत्र में यह क्रम स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु एवं श्रोत के रूप में दिया गया है। प्रथम क्रम में सूक्ष्म स्थूल की ओर वृत्ति का संकेत है जबकि द्वितीय क्रम में स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रवृत्ति का संकेत है । इन्द्रियां और उनके विषय मुख्यतः भौतिक जगत से संबन्धित हैं। यहां स्थूल प्रवृत्ति सामान्य है । फलतः इस क्रम विपर्यय का कारण भी अन्वेषणीय है ।
सूक्ष्म की ओर
उपरोक्त आठ प्रकरण प्रायः पूर्णतः ही जैन सैद्धांतिक मान्यताओं से संबंधित हैं । उनमें पाये जानेवाले क्रम परिवर्तनों पर टीकाकारों या विद्वानों ने विचार किया हो, यह देखने में नहीं आया । इन क्रम व्यत्ययों के विषय में निम्न विदु विचारणीय हैं : १. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
जैन सिद्धांतों के विकास को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने पर यह मानना सुसंगत लगता है कि भिन्न-भिन्न समयों में इनके आयाम विस्तृत, परिवर्तित और संक्षेपित हुए हैं । इसमें प्रारंभ में लोक-अनुभव था, बाद में बुद्धिवाद आया, उत्तर काल में व्यक्तिवाद / श्रद्धावाद आया । दर्शन -ज्ञान-चारित्र एवं काय वचन मन का उत्तरवर्ती *म इसी का प्रतीक माना जा सकता है ।
२. बुद्धिवाद का विकास
आ० उमास्वाति का युग संभवतः संक्रमण काल रहा होगा । इसीलिये उनके
तुलसी प्रशा
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