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हा ! ही ! ही ! धिक्कारो ॥ ३
इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्यश्री ने अपनी रचनाओं में यथास्थान रसों का उपयोग किया है । आचार्यश्री एक सृजनशील व्यक्ति थे । उन्होने काव्यों का ही सर्जन नहीं किया अपितु अनेक व्यक्तियों का जीवन-निर्माण भी किया है। शील व्यक्तित्व को कोटिशः अभिवंदना |
उस सृजन
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आ कोई काणां सुण लेसी, तो ओ बाना रहण न देसी । देसी सब दुत्कारो ॥२ क्यूं पाखंड रच्यो मुनिव्रत रो, संयम बणगयो उलटो खतरो ।
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— मुनि विमलकुमार भिक्षु विहार जैन विश्व भारती,
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लाडनूं
तुलसी प्रज्ञा
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