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वन्तरसे कलरवे नभसंगमानां, सत्कूजिते परभृतामपि मर्मरेऽपि, गुजारवे मधुकृतां सलिल प्रपाते, वत्रोच्चये मरुति वा स्तनयित्नु राशी ।। प्राकल्पत प्रतिपलं मणिपालमेव प्रालोकत प्रतिपदं समदष्टि बिन्दुः । शुश्राव तदध्वनिमलं खलु साधुना हि,
सर्वत्र शान्तरसमेक" ||" अर्थात् उस समय प्रेमाकुल रत्नवती आकाश में धूली मार्ग में नदी के जलकणों में, वृक्षों की पंक्ति में, शाखाओ में, पल्लवो में पत्तों में, फलों और कलिकाओं के समूह में, कोयलों के कूजन में, पत्तों की ध्वनि में, भौरों के गुंजारव में, पानी के प्रपात में अंधकार में, हवा में, मेघों में प्रतिपल मणिपाल (नायक) की कल्पना करती थी, एकदृष्टि होकर पग-पग पर उसे देखती थी, उसकी ध्वनि सुनती थी, वह रत्नवती अब एक दृष्टि से सर्वत्र शान्त रस को देख रही है। ५. सहजता
कवि या रसिक वर्ग (पाठक वर्ग) जितना ही सहज होगा उतना ही रसबोध या सौन्दर्य बोध की क्षमता अधिक होगी। संसार के जितने भी श्रेष्ठ साहित्यकार हुए उनके पास सहजता की महार्घ्य निधि अवश्य विद्यमान थी। भले ही इसकी प्राप्ति के लिए ध्यान-साधना, स्वाध्याय, भावना आदि की आवश्यकता है लेकिन सौन्दर्य बोध के लिए 'सहजता' आवश्यक है। कटु या विरस व्यक्ति लाख सन्दर वस्तु क्यों न देखे—उसे वह अनुभूति कभी नहीं होगी जो एक सहज एवं ऋजु-चरित्र सम्पन्न व्यक्ति को होती है । करोड़ों जीवों को मरते हए, मारे जाते हए करोड़ों लोगों ने देखा होगा लेकिन महर्षि वाल्मीकि ही एक ऐसे व्यक्ति क्यों हए कि मात्र कोंची के वियोग पर उनके हृदय से ऐसी करुणा की धारा बही कि रामायण जैसा महासागर तैयार हो गया, जिसमें मात्र वाल्मीकि नही बल्कि करोड़ों जीव स्नात कर धन्य हो गए, शताब्दियों तक धन्य होते रहेंगे। क्रौंची के वियोग से दु.खी महर्षि का हृदय हाहाकर कर उठा
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती समा: ।
यत् क्रौंच मिथुनादेकमवधी: काममोहितम् ।।१२ हे निषाद ! तुम सैकड़ों वर्षों तक समाज में प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं कर पाएगा क्योंकि तूने काममोहित क्रौंच-युगल में से एक क्रौंच को मारा है ।
कालिदास इसलिए जगत्प्रसिद्ध हुए कि उनका चित्रण माघ और भारवि की तरह जटिल नहीं बल्कि अत्यन्त सहज है। सचेतन प्राणी शीघ्र ही कालिदास की रसगंगा में प्रवाहित होने लगता है। आश्रम कन्या शकुन्तला की निसर्ग रमणीयता किसे आकृष्ट नहीं कर लेती । मुग्ध बालक सबको प्रिय होता है। शकुन्तला का रूप सौन्दर्य था—यह तो कोई कविप्रवर कालिदास, रसिक दुष्यन्त या साहित्यशास्त्र का
तुलसी प्रज्ञा
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