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२. प्रभु का जो नित भजन करे ।
पार्श्वनाथ को नाम लेत ही, संकट सकल टरें........।। निज स्वभाव छवि देखत उर में, मोद प्रमोद भरें । जब तक शिवपद मिले न तब तक, प्रभु पद नमन करें ।। शुक्लध्यान धर क्षपकश्रेणी चढ़ जो निज भाव वरें । महामोक्षपद पखें उनके, आठों कर्म जरें ॥ ३. पार्श्व प्रभु परम वीतरागी ।
भव तन भोगों से उदास हो, वन गये वैरागी ॥
तुम दर्शन से मेरे उर में निज महिमा जागी
भाव सहित प्रभु चरण पखारूं, बुझे कर्म आगी || पार्श्वप्रभु ||
तेरापंथ ( श्वेताम्बर परम्परा) के यशस्वी आचार्य जयाचार्य ने स्वरचित चौबीसी वन्दना में पार्श्वप्रभु के दर्शन भाग्य से प्राप्त होते हैं, इस तरह की भावाभिव्यक्ति करते हुये संवत् १९०० में यह रचना लाडनूं ( राज० ) नगर में रची । यह वन्दना दुष्टव्य है -
पारस देव तुम्हारा दर्शन भाग भला सोई पार्व हो । भाग भला सोई पावं, हूं वारि जाउं
जीव मगन हो ज्यावै हो पारस देव ।
लौह कंचन करें पारस काचो, ते कहो कर कुण लेवे हो । पारस तू प्रभु साचो पारस, आप समो कर देव हो ॥ १ ॥ फटिक - सिंहामणि सिंह आकारे, वंस देशना देवै हो । वन-मृग आव वाणी सुण्वा, जाणक सिंह ने सेवै हो || ३ || अन्त में माणकचंद पाटनी का मनोहरी पद' -
" तुमसे लागी लगन " रहे मेरी पार्श्व जिनंद । जागूं या रहूं नींद में सुमरू वामा नंद ।। तुम सुमरे सब सुख मिले, तुमको सुमरे संत । तुम ही हो माता-पिता तुम ही हो मेरे कंत ॥
इस प्रकार हम देखते हैं कि पार्श्व प्रभु से संबंधित इन पदों में जहां उनकी सम्पूर्ण भारत व्यापी लोकप्रियता दृष्टिगत होती है वहीं भक्तों के हृदयों में अपने और अपने जीवन के प्रति एक आश्वासन, तसल्ली, जागरूकता, श्रद्धा और आस्था प्राणवान हो उठती है ।
२३ अंक ४
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