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आचाय हेमचन्द्र वे 'अभिधान चितामणि' में नौ रसों का वणन किया है। वे हैं-शृंगार रस, हास्य रस, करुणा रस, रौद्र रस, वीर रस, भयानक रस, वीभत्स रस, अद्भुत रस और शान्त रस । कुछेक ग्रन्थों में दस रसों का भी वर्णन मिलता है । उनके अनुसार हेमचंद्राचार्य द्वारा प्रतिपादित नौ रसों के अतिरिक्त दसवां रस है "वात्सल्य"।
हमारे प्राचीन कवियों ने अपने काव्यों में इन रसों का भरपूर प्रयोग किया है । आचार्यश्री तुलसी एक संत, साधक हैं। उनके काव्यों में शृंगार रस और हास्य रस की तो सर्वथा उपेक्षा ही हुई है जो कि एक संत और साधक के लिए आवश्यक है। अन्य रसों का उन्होंने अपने काव्यों में यथा स्थान उपयोग किया है।।
वीर रस और शांत रस काव्य के महत्वपूर्ण अंग है। वीररस की रचनाएं जहां कायरता को दूर भगा पाठक के रग-रग में वीरता का संचार करती है वहां शांतरस पूर्ण रचनाएं उफनते हुए तूफान को शांत करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। आचार्यश्री के काव्य 'मगन चरित्र' में वीर रस का एक उदाहरण देखिए-बात उस समय की है जब आचार्यश्री कालगणी का वि. सं. १९७७ का चातुर्मास हरियाणा प्रान्त के अंतर्गत भिवानी ग्राम में था। चातुर्मास में कुछ भाईबहिनों की दीक्षा होने वाली थी। विरोधियों ने उस दीक्षा को रोकने के लिए विरोधी वातावरण बनाया। वे छायाबाजी मिटिंग आदि करने लगे। यह देखकर भिवानी के श्रावकगण घबरा गये। वे मुनि मगनलालजी स्वामी के पास आये और बोले
म्हाराजी ! दीक्षा देद्यो अगर ठिकाण,
तो लोग विरोधी पड़ज्या तब लचकाण । तब मुनि मगनलालजी ने उन घबराये हुए श्रावकों से जो बात कही वह वास्तव में वीर रस की द्योतक है। मुनि मगनलालजी ने जो कुछ कहा-उसे आचार्यश्री ने अपने शब्दों में इस प्रकार गूंथा है
मुनि मगन-द्वारकादास ! बात सुण लेना, इससे पड़ जाएगा लेने से देना ।।१।। हम तो दीक्षा तुम कहो वहां दे देंगे, पावस उतरे भीवाणी छोड़ चलेंगे। तुमको तो आखिर रहना यहीं पड़ेगा, कायरता का अभियोग न कभी झड़ेगा ॥२॥ ऊमर भर ऊंची नजर न देख सकोगे, बिलकुल सच्चे, बन झूठे मुंह तकोगे । क्यों सिर पर भय का भूत सवार हुआ है, क्या धार्मिकता का बल बेकार हुआ है ॥३॥
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तुलसी प्रज्ञा
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