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ज्यों सुन घनघोर शोर, मोर हर्षको न ओर, रंक निधि समाजराज पाय, मुदित थायो ।। पारस.।। ज्यों जन थिर क्षुधित होय, भोजन लखि सुखित होय, भेषज गदहरण पाय, सुरज सुहरखायो । पारस.।। वासर भयो धन्य आज, दुरित दूर परे भाज, शान्तदशा देख महा, मोहतम पलायो ।पारस. जाके गुन जानत जिम, भानन-भवकानन इम,
जान 'दोल" शरन आय, शिव सुख ललचायो ।पारस जिन०॥ कवि की आत्मानुभूतिपूर्ण प्रसन्नता अनुभव गम्य और इन्द्रियातीत एवं अन्तर्मुखी है। ऐसे क्षण विरलों को ही प्राप्त होते हैं। ___महाकवि दौलतराम ने अपने पदसंग्रह में पार्श्वनाथ के गुणगान करते हुए उनके प्रति अपनी भक्ति प्रकट की है।
प्रत्येक मनुष्य प्रातः उठकर अपने परम आराध्य का स्मरण करता है, उनके गुणों का मनन, चिन्तन करना श्रेष्ठ समझता है । अतः प्रातः सर्व प्रथम पार्श्व प्रभु को स्मरण करके ही मन की सुख शान्ति की प्राप्ति हेतु उनकी आराधना करने की प्रेरणा देते हुये जिनदास कवि ने यह पद लिखा है--
भोर भयो उठि भज रे पास । जो चाहे तूं मन सुख वास ॥ चंद किरण छवि मंद परी है पूरब दिशि रवि किरण प्रकास ॥ भोर भयो। ससि अर विगत भये तारे। निश छोरत है पति आकाश ॥ भोर भयो । सहस किरण चहुं दिश पसरी है कवल भये वन किरण विकास ॥ भोर भयो। पंखीयन ग्रास ग्रहण कू उडे। तमचुर बोलत है निज भास ।। भोर भयो। आलस तजिस भजि साहिब (पारस) कू
कहै “जिन" हर्ष फल जु आस ॥ भोर भयो०।। प्रसिद्ध तत्वज्ञ श्री आनन्दघन जी ने “पारसनाथ" में ही सभी देवों के दर्शन किये हैं। उनके अनुसार दयालु सम्यग्दृष्टि होकर जो आत्मरूप (अर्मूत सौन्दर्य) का संस्पर्श करता है वही "पार्श्व" है । "पार्श्व" ही सिद्धि मोक्ष मार्ग की ओर ले जाने में समर्थ है।
राम कहो, रहमान कहो कोउ, कान कहो महादेव री। पारसनाथ कहो कोई ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वमेव री ।। निजपद रमे राम सो कहिए, रहिम करे रहिमान री। फर्षे कर्म कान सो कहिए,महादेव निर्वाण री । टेक ॥
र २३, अंक ४
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