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के आधार पर मन की अंतिम प्रमुखता बताई है । यह पूर्वोक्त आगमिक मान्यता के विपर्यास में लगती है एवं मन-काय के संबंध में प्रचलित दो परंपराओं का संकेत देती है । यह क्रम प्रक्षिप्त भी हो सकता है । इसके विपर्यास में, उमास्वाति ने (६-८ में) संरभ-समारंभ-आरंभ का क्रम दिया है (विचार,तैयारी और क्रिया) जो व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से अधिक तर्क संगत लगता है पर यहां भी, मन की मूलभूतता (६-१ के) मन की गौणता की तुलना में विचारणीय हो गई है । दिगंबर ग्रंथों का यह क्रम मन-वचन-काय के क्रम का प्रतिष्ठापक है जो (६-१ के) विपर्यास में है। यहां 'सभारंभ' शब्द भौतिक क्रिया हेतु तैयारी के अर्थ में आया है, मनोवेगों के अर्थ में नहीं।
आगमों में मन: प्रधान (बुद्धिवादी) वर्णन है, अत: उनका क्रम बुद्धिवादी चिंतन कहा जा सकता है। परिणामजन्य मनोवेग जीवन में सुधार भी ला सकते हैं। उसके विपर्यास से दिगंबरों का क्रम व्यावहारिक अधिक है। इसमें शुभता की वत्ति प्रच्छन्न ही है। ४. प्रदेश-प्रकृति-स्थिति-अनुभाग बंध या प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेश बंध ?
आगमिक युग में एवं आ० कुदकुद के समय में कर्म-बंध के चार प्रकारों का क्रम प्रदेश, प्रकृति, स्थिति, अनुभाग के रूप में रखा गया है। इसके विपर्यास में, षट्खंडागम एवं तत्वार्थ सूत्र में इस क्रम में व्यत्यय हुआ है (समयसार २९० कुदकुद भारती संस्करण, तत्वार्थ सूत्र ८-३)। वस्तुतः पहला क्रम अधिक वैज्ञानिक लगता है। बिना प्रदेशों की संख्या के कर्म प्रकृतियों का निर्माण कैसे हो सकता है ? आ० विद्यानंद ने अपनी टीका में इस क्रम में किंचित् परिवर्तन व्यक्त किया है। इस व्यत्यय की व्याख्या अपेक्षित है। सात तत्वों एवं नव पदार्थों का क्रम
आगमों और कुंदकुद के ग्रंथों में नो, दस, ग्यारह या बारह तक तत्व बताये गये हैं जिनका श्रद्धान और ज्ञान अतिशय चारित्र का कारण होता है। लेकिन इनका क्रम जैनेतर तत्त्वों के अधिक अनुरूप है और बौद्धों के चार आर्यसत्यों के विपर्यास में पंच-युगली सत्यों के अनुरूप है। क्या तत्व योजना जैनों की अपनी मौलिक नहीं है? इनके क्रमों में बंध-मोक्ष अंत में आते हैं। संभवत: जैन ज्ञानों के विकास का आधार अन्य तंत्रों की मान्यताएं रही हों। इनके प्राचीन क्रम पर इनका प्रभाव स्पष्ट व्यक्त होता है जैसा के. के. दीक्षित भी मानते हैं । इस क्रम के विपर्यास में आ० उमास्वाति का तत्वक्रम है जहां न केवल तत्व संख्या ही निर्धारित की गई है अपितु उनका क्रम भी परिवर्तित किया गया है। उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी इसे माना है । ऐसा प्रतीत होता है कि तत्वों का प्रचीन क्रम बौद्धिक दृष्टि से उतना मनोवैज्ञानिक और तर्कसंगत नहीं लगता । इसके विपर्यास में, उमास्वाति के क्रम में ये दोनों ही गुण पाये जाते हैं। यह व्यवस्थित भी है। उनके द्वारा इस क्रम परिवर्तन का आधार क्या रहा होगा, यह
बड २३, अंक ४
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