________________
पुण्य को लेकर नौ तत्त्व भी माने गये हैं। प्रवचनसार के अनुसार जीव और अजीव दो ही तत्त्व हैं । सात तत्त्वों में जीब और अजीव दो ही प्रधान' तत्त्व हैं, शेष तत्त्व जीव और अजीव के पर्याय हैं। जीव और अजीव को सम्बद्ध करने वाले आस्रव और बन्ध हैं तथा उन्हें पृथक करने वाले संवर और निर्जरा हैं। मोक्ष जीव की स्वतंत्र अवस्था का नाम है। इस प्रकार जीव या आत्मतत्व सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । अमृतचन्द्र आचार्य ने समयसार की आत्मख्याति टीका में कहा है 'शुद्ध नय की अपेक्षा एक मात्र आत्मज्योति ही चमकती है, जो इन भव तत्त्वों में धर्मीरूपेण अनुगत होते हुए भी अपने एकत्व को नहीं छोड़ती।
पंचास्तिकाय में आत्मा को जीव, चेतयिता और उपयोग वाला माना गया है।' समयसार में जीव को रस रहित, रूप रहित, गन्ध रहित, अव्यक्त तथा इन्द्रिय से नगोचर, चेतना गुणवाला, शब्द रहित और आकार रहित माना गया है । अतः वह तो सहजानन्द स्वरूप सम्यक दर्शन, ज्ञान चारित्रादि अनन्त गुणों का अखंड पिंड है। कुन्दकुन्दाचार्य ने पंचास्तिकाय में आत्मा का विचार करते हुए कहा है-'आत्मा जीव है, चैतन्य है, उपयोग वाला है, अपने किये हुए कर्मों का स्वामी है, पुण्य पाप कर्मों का कर्ता एवं उन कर्म फलों का भोक्ता, शरीर परिणामी, अमूर्तिक और कर्म संयुक्त है।' कुन्दकुन्दाचार्य के उत्तरवर्ती आचार्यों ने आत्मा के इसी स्वरूप का अनुसरण किया है।
कुन्दकुन्दाचार्य के उत्तरवर्ती आचार्यों ने दो दृष्टियों से आत्म स्वरूप का विवेचन किया है-पारमार्थिक दृष्टिकोण और व्यावहारिक दृष्टिकोण । दृष्टिकोण को जैन दर्शन में नय कहते हैं । आध्यात्मिक दृष्टि से नय के दो रूप हैं-निश्चय नय और व्यवहार नय ।° कुन्दकुन्दाचार्य ने निश्चय नय को भूतार्थ अर्थात् वस्तु के शुद्ध स्वरूप का ग्राहक और व्यवहार नय को अभूतार्थ अर्थात् वस्तु के अशुद्ध स्वरूप का विवेचक कहा है ।" आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विवेचन शुद्ध निश्चय नय से और उसके अशुभ स्वरूप का विवेचन व्यवहार नय तथा अशुद्ध निश्चय नय की दृष्टि से किया गया है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विवेचन कुन्दकुन्द ने भावात्मक एवं निषेधात्मक दोनों दृष्टियों से किया है । भावात्मक दृष्टि से उन्होंने बताया है कि आत्मा क्या है ? और अभावात्मक दृष्टि से बताया है कि आत्मा क्या नहीं है। निश्चयनय की भावात्मक दष्टि से शुद्धात्मा बंधहीन, निरपेक्ष, स्वाश्रित, अचल, निसंग एवं ज्ञापक ज्योतिमात्र है। और अभावात्मक दृष्टि से वह वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान आदि नहीं है। नियमसार में भी आत्मा को निग्रंथ, वीतराग, निःशल्य स्वरूप मान कर दोष, काम, क्रोध, मान, मान, माया एवं भेदरहित कहकर निश्चयनय के भावात्मक एवं निषेधात्मक स्वरूप को पुष्ट किया गया है "
व्यवहारनय की दृष्टि से अशुद्ध या संसारी आत्मा का स्वरूप भी स्वीकार किया गया है । इस दृष्टि से अध्यवसाय आदि कर्म से विकृत भावों को आत्मा कहा गया है । जीव के एकेन्द्रियादि भेद, गुणस्थान, जीव, समास एवं कर्म के संयोग से उत्पन्न गोरादिवर्ण तथा जरादि अवस्थाएं और नर-नरकादि पर्याय अशुद्ध आत्मा के होते हैं।" पंचास्तिकाय में आत्मा का स्वरूप बतलाते हुए कुन्दकुन्द ने कहा है कि आत्मा चैतन्य तथा उपयोग स्वरूप, प्रभु, कर्ता, देह प्रमाण, अमूर्तिक एवं कर्म संयुक्त है।"
तुलसी प्रशा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org