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धारणा : एक संक्षिप्त विमर्श
साध्वी भुतयशा
जैनदर्शन में अत्यन्त प्राचीनकाल से पञ्चविध ज्ञान विभाग की परम्परा है। ज्ञान के पांच प्रकारों में मतिज्ञान का क्षेत्र सर्वाधिक व्यापक है क्योंकि अल्पतम ज्ञान चेतना के विकास में भी यह ज्ञान विद्यमान रहता है । इन्द्रिय और मन के निमित्त से आविर्भूत होने वाला यह प्रथम ज्ञान सर्वज्ञता के पूर्ववर्ती प्रथम क्षण तक विद्यमान रहता है । मतिज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान है । वह एक नियतक्रम से होता है । यद्यपि अभ्यस्त दशा में हमें उस क्रम का अवबोध नहीं होता । इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान का अन्तिम क्षण है धारणा (Retention) । प्रस्तुत लघु निबंध में उसी के विषय में कुछ विमर्श अभीप्सित है।
___ अवाय के द्वारा गृहीत अवबोध का चेतना के किसी बल पर इतनी गहराई ले प्रतिबिम्बित होना कि वह स्मृति के रूप में परिणत हो सके-धारणा है। वह ज्ञानांश जो धारण करके रखा जा सके, चित्त को वासित कर सके-धारणा की कोटि में आता है । हमारा स्मृतिकोष उतना ही समृद्ध बनता है जितना हमारा धारणा-बल पुष्ट होता है । धारणा समनस्क प्राणियों का विशेषाधिकार है क्योंकि सामान्यतः मन:पर्याप्ति के अभाव में असंज्ञी प्राणियों का इन्द्रिय प्रत्यक्ष अवाय तक आते-आते अवरुद्ध हो जाता है।
धारणा इन्द्रिय प्रत्यक्ष की प्रक्रिया का चतुर्थ अंग है । अवाय द्वारा निर्णीत अर्थ को इस प्रकार धारण करना कि वह कालांतर में भी याद किया जा सके, धारणा है । 'आवश्यक निर्यक्ति' से भी इसी अर्थ की सम्पुष्टि होती है ।' आवश्यक चुणिकार के अनुसार अवग्रह आदि के द्वारा ज्ञात अर्थ को धारण करना तथा अन्य किसी समय में उसका पुन: स्मरण करना धारणा है । जिनभद्रगणि के अनुसार धारणा का अर्थ है-निर्णीत अर्थ की अविच्युति । नन्दी चूर्णिकार के अनुसार अवगत अर्थ का च्युत न होना धारणा है । इस प्रकार उन्होंने धारणा के स्मृति अंश को प्रधानता दी है -यह कहा जा सकता है । आचार्य हरिभद्रसूरि ने धारणा को परिभाषित करते हुए कहा कि अर्थ विशेष को धारण करना धारणा है । इसके तीन रूप होते हैंअविच्युति, स्मृति एवं वासना । यह जिनभद्रगणि द्वारा प्रस्तुत-अविच्युति, वासना एवं स्मृति का ही अनुसरण है मात्र क्रमभेद है । पूज्यपाद ने भी धारणा को अविस्मृति का कारण माना है। किन्तु वह कारणरूप संस्कार ज्ञानात्मक होने से जिनभद्रगणि की व्याख्या से भिन्न है । अकलंक, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य आदि उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खंड २३ अंक ४
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