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२ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन उनमें जैविक मूल्यों को प्रधानता दी गयी है जबकि निवर्तक धर्म मुख्यतः संन्यासमार्गी और जैविक मूल्यों के निषेधक रहे हैं। यहाँ हमें स्मरण रखना चाहिए कि वर्तमान में न तो जैन या बौद्ध पूर्णतः निवर्तक है और न हिन्दू धर्म पूर्णतया प्रवर्तक, बल्कि दोनों ही परम्पराओं में एक दूसरे के तत्त्व समाविष्ट हो चुके हैं। फिर भी ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में इनके मूल में निहित विभिन्नता को देखा जा सकता है । डा० सागरमल जैन अपनी पुस्तक 'जैन, बौद्ध और गीता का साधनामार्ग' की भूमिका में इन दोनों ही प्रकार के धर्मों की समीक्षात्मक विवेचना करते हुए लिखते हैं कि 'प्रवर्तक धर्म में प्रारम्भ में जैविक मूल्यों की प्रधानता रही है, वेदों में जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित प्रार्थनाओं के स्वर ही अधिक मुखर हुए हैं, उदाहरणार्थ-हम सौ वर्ष जीयें, हमारी सन्तान बलिष्ठ होवें, हमारी गायें अधिक दूध देवें, वनस्पति प्रचुर मात्रा में हो आदि। इसके विपरीत निवर्तक धर्म ने जैविक मूल्यों के प्रति एक निषेधात्मक रूप अपनाया, उन्होंने सांसारिक जीवन की दुःखमयता का राग अलापा । उनको दृष्टि से शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दुःखों का सागर । उन्होंने संसार और शरीर दोनों से ही मुक्ति को जीवन लक्ष्य माना। उनकी दृष्टि में दैहिक आवश्यकताओं का निषेध, अनासक्ति, विराग और आत्म-सन्तोष ही सर्वोच्च जीवनमूल्य हैं। ___ निवर्तक और प्रवर्तक धर्मों के उपरोक्त लक्षणों को सैद्धान्तिक दृष्टि से हम स्वीकार कर सकते हैं, किन्तु आज कोई भी धर्म न तो शुद्ध रूप से निवर्तक है और न तो शुद्ध रूप से प्रवर्तक ही। फिर भी मनोवैज्ञानिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इन दो परम्पराओं का अलग-अलग रूप देखा जा सकता है। दोनों परम्पराओं के अन्तर को स्पष्ट करते हए डा० जैन पूनः लिखते हैं कि- "एक ओर जैविक मूल्यों को प्रधानता का परिणाम यह हुआ कि प्रवर्तक धर्म में जीवन के प्रति एक विधायक दृष्टि का निर्माण हुआ तथा जीवन को सर्वतोभावेन वांछनीय और रक्षणीय माना गया, तो दूसरी ओर जैविक मूल्यों के निषेध से जीवन के प्रति एक ऐसी निषेधात्मक दृष्टि का विकास हुआ जिसमें शारीरिक मांगों का ठुकराना ही जीवन-लक्ष्य मान लिया गया और देहदण्डन हो तप-त्याग और अध्यात्म के प्रतीक बन गये। प्रवर्तक धर्म जैविक मूल्यों पर बल देते हैं अतः स्वाभाविक रूप से वे समाजगामी बने
१. जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग-प्रस्ताविक, पृ० ९
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