Book Title: Tirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Author(s): Yashodevsuri
Publisher: Jain Sanskruti Kalakendra

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Page 18
________________ DUMRO DOM 00.0.. संपादकीय निवेदन-हिन्दी में ॐ अहं नमः । वीराय नित्यं नमः । - दूसरी आवृत्ति से उद्धृत इस काल के अंतिम चौबीसवे तीर्थकर श्रमण भगवान श्री महावीर परमात्मा के प्रधान जीवन प्रसंगों का चित्रमय संपुट प्रकाशित हो रहा है जिसे देखकर मैं अपार हर्ष एवं आनन्दानुभूति कर रहा हूँ। वर्षोंसे संजोया स्वप्न पूरा होते देखकर कौन मुदित नहीं होगा? हजारों शब्द जो असर नहीं पैदा कर सकते वह असर इन्हीं शब्दों द्वारा उभारी गई एक आकृति या चित्र शीघ्र और सीधा असर पैदा कर सकते हैं। सर्व स्वानुभवसिद्ध यह तथ्य देखते हुए भगवान श्री महावीर का यह प्रेरक, सुंदर, मनोमुग्ध एवं भव्य चित्रमय जीवन 'समय नहीं है' (NO Time), संक्षिप्त और सारगर्भित (Short and Sweet) जैसे नारों से गुजते इस युगमें, नई पेढ़ी के लिए थोडे समय में शीघ्र और सरलता से भगवान श्री महावीर प्रमुका जीवन, साधना एवं सिद्धि की झाँकी कराने एवं उत्तम प्रेरणाएँ देने में अवश्य ही निमित्त बनेगा। इन स्वतंत्र चित्रों के संपुट में भगवान श्री महावीर का जीवन (चौंतीस) ३४ चित्रों में दिया गया है और ३५ वाँ चित्र भगवान के आद्य शिष्य गणधर श्री गौतमस्वामीजी का है। इस सपुट में भगवान श्री महावीर के जीवन के कुछ अन्य प्रसंगों के चित्रों के समावेश की मेरी ईच्छा थी किन्तु वह तत्काल संभव नहीं हो सके । तदुपरान्त किसी-किसी चित्रमें कला के सिद्धान्त और दृष्टि को आदर देना अनिवार्य होने के कारण मेरी धारणा और वास्तविकता को थोडा छोडकर, चित्रकार की स्वतंत्रता को स्वीकारना पड़ा है। यह पुस्तक चित्रसंपुट का (चित्रमय) होनेसे चित्रपरिचय अत्यत संक्षिप्त दिया जा सकता.किन्तु अन्य महत्वपूर्ण कारणोसे मैंने इसमें मध्यम नीति अपनाई है। परिचय आलंकारिक या काव्यमयी भाषामें उसके मार्मिक विवेचनसहित न देते हुए सबके लिए सुबोध एव सुवाच्य बने इस रीतिसे सरल और (स्पष्ट) भाषा में प्रसंगतक सीमित ही दिया है। देश-विदेश की जनता इसका लाभ उठा सके इस लिए परिचय तीनों भाषाओं में दिया है।अवशेष लेखन मुझे समय की कमी के कारण एक ही भाषा में दिया है। जैनधर्म के प्रतीक - चिहन आदि क्या है? उनके आकार क्या हैं? वे किस लिए होते है? देश-विदेश के शिक्षित जैनअजैन यह सब जानने की जिज्ञासा रखते है। इसे मैं वर्षों से महसूस करता था, अतः प्रतीक एवं चित्रपट्टियाँ तैयार कराई और इन प्रतीकों को तीनों भाषाओं के परिचय के प्रारंभमें एव पट्टियों के नीचे के भागमें मुद्रित किया गया है। प्रतीक एवं पहियाँ अधिकांशतः जैनधर्म के अनुसार है। जबकि थोडे प्रतीक, पट्टियों सर्वमान्य प्रकार की भी है। कुल मिलाकर १४० प्रतीक एवं ६१ पट्टियाँ हैं। इन में ४० पट्टियाँ और १०५ प्रतीकों का परिचय सजिल्द चित्र संपुट में दिया गया है। खुले-अजिल्द चित्रों के संपुट में नहीं। मेरे इस मंगल कार्यमें तन-मन-धन तथा विविध रुपेण सहयोग कर मेरे इस कार्यको जिन्होंने सरल बनाया है उन सभी महानुभावों तथा मेरे साथ रहकर सर्वाधिक सहायक होनेवाले मुनिराज श्री वाचस्पतिविजयजी को, एवं हमारे आबाल वृद्ध साधुसाध्वीजी वृन्द को, इसी प्रकार प्रकाशकीय निवेदन में जिन आचार्यो, साधु-साध्वियों, भाईयों, प्रेस आदि के प्रति आभार ज्ञापित किया है। उन सबके प्रति में भी अन्तःकरणपूर्वक धन्यवाद अर्पित करता हूँ। सबकी लगन एवं भक्तिभरे सहयोग को मैं कभी नहीं भूल सकता। पुस्तकाकार एवं अजिल्द खुले चित्रों के रूप में संपुट प्रकाशित करने में धारणासे अधिक विलम्ब हुआ उसके प्रति गहरा खेद अनुभव कर रहा हूँ और इस अपराध को उदारतापूर्वक निभाने का सबसे अनुरोध करता हूँ। कलिकाल कल्पतरु भगवान श्री पार्श्वनाथ प्रभु की सत्कृपा, यह कालकी परमप्रभाविका भगवती श्री पद्मावतीदेवी के सहयोग, असीम करुणा वर्षा करनेवाले रव पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद विजय मोहनसूरीश्वरजी महाराज तथा परमउपकारी, परमकृपालु गुरुदेव ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध आचार्य श्रीमान् विजय प्रतापसूरीश्वरजी महाराज एवं युगदिवाकर परमपूज्य आचार्य श्रीमान् विजय धर्मसूरीश्वरजी महाराज के शुभ आशीर्वाद, इसी प्रकार प्रखर उपदेशक, मेरे तारक गुरुदेवकी अनेकविध प्रबल सहायता से यह कार्य सफल बना। इसके लिए सबको अनेकशः नतमस्तक वंदन करता हुआ अन्त करण से आभार ज्ञापित करता हूँ। अहिंसामूर्ति भगवान श्री महावीर का समग्र जीवन अदभुत, अनुपम, बेजोड और प्रेरणाप्रद है। वस्तुतः इन्होने अहिंसा, संयम, तप, सत्य और क्षमा आदि सर्वकल्याणकारी उदात्त इन धर्मोकी सर्वोत्तम कोटि की साधना कर अन्तिम सिद्धि प्राप्त की अर्थात् वीतराग-सर्वज्ञ होकर निर्वाण सुख के अधिकारी बने। हम भी यदि इस मार्ग पर चलें तो अपनी आत्मा को परमात्मा की श्रेणी में पहुँचाकर निर्वाण-मोक्ष सुख के अधिकारी अवश्य बना सकते है। क्षमामूर्ति भगवान श्री महावीर के उपदेश का संक्षिप्त साराश यह है कि यदि तुम्हें तुम्हारा सर्वांगी विकास सिद्ध करना हो तो आचार में सर्वहितकारिणी अहिंसा, विचारमें संघर्षशामक अनेकान्त (स्याद्वाद) के सिद्धान्त को एवं व्यवहारमे संक्लेशनाशक अपरिग्रहवाद को मन, वचन, कर्म से अपनाओ । इससे व्यक्ति के जीवन में विश्वबंधुत्व-मैत्री की भावना, समन्वयवादी दृष्टि और त्याग-वैराग्य के आदर्श जीवंत बनेंगे। यदि इन सिद्धांतों को कम-ज्यादा रुपने सभी आचरणमें उतारेंगे तो समष्टि-समुदायमें अध्यात्मवाद का प्रकाश प्रसारित होकर भय, चिन्ता, अशाति,असंतोष, अविवेक, अहंकार जैसे अनेक जड तत्त्वो का घिरा हुआ अधकार विलीन होगा । फलतः सर्वत्र मैत्री, स्नेह, आदर, एकता, सहिष्णुता और शांति का बल अक्षुण्ण होगा। यह स्मरण रखना चाहिए कि भगवान श्री महावीर किसी एक संप्रदाय, एक प्रान्त या किसी एक देश के नहीं थे। वे सब के थे, सब के लिए थे। समग्र विश्व के थे - संपूर्ण विश्व के लिए थे। यदि विश्व की मानवजाति केा हिंसा और त्रासवाद से उबरना होगा तो भगवान महावीर के अहिंसा के सिद्धान्त को अपनाये बगैरह कहीं आरपार नहीं है। व्यक्ति अथवा समष्टिके लिए अहिंसा के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नैया पार करनेवाला नहीं है, यह एक त्रैकालिक सत्य है। व्यक्ति या समष्टि इसे जितनी जलदी रवीकार करे उतना ही उसके हितमें है। अन्त में हम सब भगवान महावीर द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर और उनकी तथा उनके शासनकी आराधना-उपासना करके आत्मकल्याण के अधिकारी बने यही मंगल कामना है। वि.सं. २०३०, सन् १९७४, गोडीजी जैन उपाश्रय, बम्बई, * मुनि यशोविजय A L 2000 SOCI MOOOO 66 ००० 7GNOV Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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