Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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प्रायु, १७७ में शरीरोस्सेध, १७८-१८३ में उनके अवधिज्ञान के क्षेत्र का प्रमाण, १५४ से १६६ में भवनवासियों के गुणस्थानादिकों का वर्णन, १६७ में एक समय में उत्पत्ति व मरण का प्रमाण, १६८-२७० में आगतिनिर्देश व २०१ से २५० में भवनवासी देवों की आयु के बन्धयोग्य परिणामों का विस्तृत वर्णन हुआ है।
भवनवासी देव देवियों के शरीर एवं स्वभावादि का निरूपण करते हुए प्राचार्यश्री यतिवृषभ जी ने लिखा है कि "वे सब देव स्वर्ण के समान, मल के संसर्ग से रहित, निर्मलकान्ति के धारक, सुगन्धित निश्वास से संयुक्त, अनुपम रूपरेखा वाले, समचतुरस्रा शरीर संस्थान बाले लक्षणों और व्यंजनों से युक्त, पूर्ण चन्द्रसदृश सुन्दर महाकान्ति वाले और नित्य ही (युवा) कुमार रहते हैं, वैसी ही उनकी देवियां होती हैं। ( १२६-१२७)
"वे देव-देवियां रोग एवं जरा से विहीन, अनुपम बलवीर्य से परिपूर्ण, किंचित् लालिमायुक्त हाथ पैरों सहित, कदलीघात से रहित, उत्कृष्ट रत्नों के मुकुट को धारण करने वाले ! उत्तमोत्तम विविध प्रकार के प्राभूषणों से शोभायमान, मांस-हड्डी-मेद-लोहू-मज्जा वसा और शुक्र आदि धातुओं से विहीन, हाथों के नख एवं बालों से रहित, अनुपम लावण्य तथा दीप्ति से परिपूर्ण और अनेक प्रकार के हाव भावों में आसक्त रहते हैं ।” ( १२८-१३०)
प्रायुबन्धक परिणामों के सम्बन्ध में लिखा है कि-"ज्ञान और चारित्र में दृढ़ शंका सहित, संक्लेश परिणामों वाले तथा मिथ्यात्वभाव से युक्त कोई जीव भवनवासी देवों सम्बन्धी आयु को बांधते हैं । दोषपूर्ण चारित्रवाले, उन्मार्गगामी, निदानभावों से युक्त, पापासक्त, कामिनी के विरह रूपी ज्वर से जर्जरित, कलहप्रिय संजी असंज्ञी जीव मिथ्यात्वभाव से संयुक्त होकर भवनवासी देवों में उत्पन्न होते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव इन देवों में कदापि उत्पन्न नहीं होता। असत्यभाषी, हास्यप्रिय एवं कामासक्त जीव कन्दर्प देवों में उत्पन्न होते हैं । भूतिकर्म, मन्त्राभियोग और कौतुहलादि से संयुक्त तथा लोगों की वंचना करने में प्रवृत्त जीव वाहन देवों में उत्पन्न होते हैं। तीर्थकर, संघ, प्रतिमा एवं आगमग्रन्थादिक के विषय में प्रतिकूल, दुविनयी तथा प्रलाप करने वाले जीव किल्विषिक देवों में उत्पन्न होते हैं। उन्मार्गोपदेशक, जिनेन्द्रोपदिष्ट मार्ग के विरोधी और मोहमुग्ध जीब सम्मोह जाति के देवों में उत्पन्न होते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ में आसक्त, ऋ राचारी तथा बैरभाव से संयुक्त जीव असुरों में उत्पन्न होते हैं । ( २०१-२१० )
जन्म के अन्तर्मुहूर्त बाद ही छह पर्याप्तियों से पूर्ण होकर अपने अल्प विभंगज्ञान से वहाँ उत्पन्न होने के कारण का विचार करते हैं और पूर्वकाल के मिथ्यात्व, क्रोधमानमायालोभ रूप कषायों में प्रवृत्ति तथा क्षणिक सुखों की आसक्ति के कारण देशचारित्र और मकलचारित्र के परित्याग