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पञ्चम अध्याय प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत्।।16।। सूत्रार्थ- क्योंकि प्रदीप के समान जीव के प्रदेशों का संकोच और विस्तार होने के
कारण लोकाकाश के असंख्येय भागादिक में जीवों का अवगाह बन
जाता है।।16।। जीव और पुद्गल के आकाश के अल्प प्रदेशों
में रहने का हेतु
जीव * प्रदेश संकोच-विस्तार शक्ति
(दीपक की तरह) * शरीर नामकर्म का उदय
पुद्गल * सूक्ष्म परिणमन *एक-दूसरे को अवगाह
देने की शक्ति
गतिस्थित्युपग्रही धर्माधर्मयोरुपकारः।।17।। सूत्रार्थ - गति और स्थिति में निमित्त होना - यह क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य
का उपकार है।।17।। धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार - मुख्य बिन्दु
जीव पुदगल के गमन व स्थिति में - 1. उपादान
जीव पुद्गल स्वयं 2. अंतरंग निमित्त क्रियावती शक्ति 3. बहिरंग निमित्त 1. साधारण कारण (उदासीन-अप्रेरक) धर्म
और अधर्म द्रव्य 2. विशेष कारण - जल, पटरी, छाया आदि
अधर्म द्रव्य - गतिपूर्वक स्थिति रूप परिणमे द्रव्यों की स्थिति में सहायक,
स्थित द्रव्यों को नहीं
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