Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Puja Prakash Chhabda
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 247
________________ 224 . चारित्रमोह के आस्रव के विशेष कारण | 1.जगत का उपकार करने में समर्थ ऐसे शीलव्रतों की निन्दा करना 2. आत्मज्ञानी । तपस्वियों की निन्दा करना, 3. धर्म का विध्वंस करना - धर्म के साधन में अन्तराय करना, 4. शीलवन्तों को शील पालन करने से चलायमान करना, 5. देशव्रती- : महाव्रती जीवों को व्रतों से चलायमान करना, 6. मद्य-मांस-मधु के त्यागियों के चित्त में भ्रम उत्पन्न करना, 7. चारित्रवन्तों के चारित्र में दूषण लगाना, 8. क्लेशरूप लिंग - भेष धारना, क्लेशरूप व्रत धारना। नौ नोकषायों के आसव के विशेष कारण 1. हास्य - मूर्खतापूर्ण हँसना, दीन-दुखी-अनाथों की हँसी करना, कामकथा और कामचेष्टा पूर्वक हँसना, बहुत व्यर्थ प्रलाप करना। 2. रति - दूसरे जीवों की विचित्र क्रीड़ा (कठिनता से किये जा सकनेवाले आगमानुकूल कार्य) में सहयोग पूर्वक तत्परता करना, उचित क्रिया को नहीं रोकना, अन्य का कष्ट दूर करना, अन्य देशों-विदेशों में उत्सुकतापने से देखने का भाव नहीं होना। 3. अरति - दूसरे जीवों के अरति उत्पन्न करना, दूसरों की कीर्ति नष्ट करना, पापी जीवों की संगति करना, खोटी क्रिया करने में उत्साह करना। 4. शोक - स्वयं को शोक होने पर दुखी होकर चिन्ता करना, दूसरों को दुख उत्पन्न करना, दूसरे को शोक में देखकर आनन्द मानना । 5.भय - स्वयं भयरूप परिणाम रखना, दूसरों को भय उत्पन्न कराना, निर्दयता के परिणाम करके दूसरों को दुःख देना। 6. जुगुप्सा - सत्य धर्म को धारण करनेवाले चारों वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कुल की क्रिया - आचार के प्रति ग्लानि रखना, दूसरों का अपवाद - निन्दा करने का स्वभाव होना। 7. स्त्री वेव - अति क्रोध के परिणाम, अति मानीपना, ईर्ष्या का व्यवहार, झूठ बोलने में हर्ष होना, अति मायाचार में तत्पर होना, अति रागभाव करना; पर स्त्री Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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