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उच्च गोत्रकर्म के आस्रव के विशेष कारण
1. दूसरों से जाति, कुल, रूप, बल, वीर्य (आज्ञा ), विज्ञान, ऐश्वर्य और तप में स्वयं अधिक विशेषता वाला हो तो भी अपने को उच्च नहीं समझना, 2. अन्य जीवों की अवज्ञा नहीं करना, 3. अन्य जीवों से उद्धतपना छोड़ना, 4. दूसरों की निन्दा - ग्लानि - हास्य- अपवाद करना छोड़ना, 5. अभिमान रहित होकर रहना, 6. धर्मात्मा जनों का आदर-सत्कार करना, 7. देखते साथ ही उठ खड़े होना, हाथ जोड़ना, नम्रीभूत रहना, वन्दना करना, 8. इस काल में जो गुण दूसरों को प्राप्त होना दुर्लभ हैं, वे गुण अपने में होते हुए भी उद्धतपना नहीं करना, 9. अपना माहात्म्य प्रकट नहीं करना, 10. धर्म के कारणों में परम हर्ष करना।
अन्तरायकर्म के आस्रव के विशेष कारण
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1. कोई ज्ञानाभ्यास कर रहा हो उसमें बाधा पहुँचाना, 2. किसी का सत्कार हो रहा हो, उसे बिगाड़ देना, 3. दान - लाभ - भोगोपभोग - वीर्य स् - स्नान - विलेपन -इत्रफुलेल - सुगन्ध-पुष्पमाला आदि में विघ्न करना, 4. वस्त्र - आभरण- शैया-आसनभक्षण करने योग्य भोजन, पीने योग्य पेय, आस्वादन योग्य लेह्य इत्यादि में दुष्ट भावों से विघ्न करना, 5. वैभव - समृद्धि देखकर आश्चर्य करना, 6. अपने पास धन होने पर भी खर्च नहीं करना, 7. धन की अत्यधिक वांछा करना, 8. देवता को चढ़ाई गई वस्तु (निर्माल्य) को ग्रहण करना, 9. निर्दोष उपकरण का त्याग कर देना, 10. दूसरों की शक्ति - वीर्य का विनाश कर देना, 11. धर्म का छेद करना, 12. सुन्दर आचार के धारक तपस्वी गुरु का घात करना, 13. धर्म के आयतन तथा जिन प्रतिमा की पूजा को बिगाड़ देना, 14 त्यागी - दीक्षित को तथा दरिद्रीअनाथ- दीनों को कोई वस्त्र - पात्र - स्थान आदि देता हो, उसका निषेध करना, 15. दूसरे को बन्दीगृह में रोकना - बाँधना, 16. किसी का गुह्य अंग छेदना, 17. - ओष्ठ को काटना, 18. जीवों को मारना ।
कान-नाक
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