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षष्ठ अध्याय
5 धर्माचरण में दोष कारक क्रियाएँ
स्वहस्त
निसर्ग
(हीन पुरुषों
(पाप साधनों (दूसरे के
योग्य कार्य के लेन-देन दोष प्रकट
स्वयं करना) में सम्मति
करना)
देना)
विदारण आज्ञाव्यापादिकी
(शास्त्र की आज्ञा
को न पाल उनके
विपरीत अर्थ करना)
5 धर्म - धारण से विमुख करने वाली क्रियाएँ
परिग्रहिकी
माया
मिथ्यादर्शन अप्रत्याख्यान
आरम्भ ( छेदन, भेदन (परिग्रह की
आदि में स्वयं रक्षा के उपाय
(ज्ञान - दर्शन ( मिथ्यादृष्टि (त्याग परिणाम आदि के विषय की क्रियाओं नहीं होना) में छल करना) की प्रशंसा
रत व हर्षित में लगे रहना)
होना)
करना)
तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ।।6।। सूत्रार्थ - तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण और वीर्यविशेष के भेद से उसकी (आस्रव की) विशेषता होती है ।।6।। आस्रव में हीनता-अधिकता के कारण
तीव्रभाव मंदभाव
(तीव्र कषाय (मंद कषाय
रूप भाव) रूप भाव)
अनाकांक्षा
(शास्त्र उपदेशित विधि का
अनादर)
ज्ञातभाव अज्ञातभाव अधिकरण वीर्य (बुद्धिपूर्वक (प्रमाद (आधार) (स्व बल) जानकर ) अज्ञान
सहित)
कारण के भेद से कार्य - आस्रव में भेद होता ही है।
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