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पं. टोडरमल - तब तो आपको यह भी मालूम होगा कि व्यवहार नय स्वद्रव्य परद्रव्य को, उनके भावों को व कारण कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता हैं; और निश्चयनय उन्हीं को यथावत् निरूपण करता हैं, किसी को किसी में नहीं मिलाता हैं।
दीवान रतनचंद - हाँ! यह भी मालूम हैं। पं. टोडरमल - अच्छा तो बतायो मनुष्य-तिर्यंच कौन हैं ? दीवान रतनचंद - जीव। पं. टोडरमल - जीव ? दीवान रतनचंद - जिनवाणी में भी उन्हें जीव ही लिखा हैं।
पं. टोडरमल - हाँ भाई! जिनवाणी में व्यवहार से नर-नारकादि पर्याय को जीव कहा ,सो पर्याय ही को जीव नहीं मान लेना। पर्याय तो जीव-पुद्गल के संयोग रूप हैं, वहाँ निश्चय से जीव द्रव्य भिन्न हैं, उसको ही जीव मानना। जीव के संयोग से शरीरादि को भी उपचार से जीव कहा, सो कथन मात्र ही हैं; परमार्थ से शरीरादिक जीव होते नहीं।
इस प्रकार अभेद अात्मा में ज्ञान-दर्शनादि भेद किये, सो उन्हें भेदरूप ही नहीं मान लेना, क्योंकि भेद तो समझाने के लिये किए हैं। निश्चय से आत्मा प्रभेद ही हैं, उसी को जीव-वस्तु मानना। संज्ञा-संख्यादि से भेद कहे, सो कथन मात्र ही हैं, परमार्थ से भिन्न-भिन्न है नहीं।
दीवान रतनचंद - तो इसी प्रकार व्रत-शील-संयमादि को व्यवहार से मोक्षमार्ग कहा होगा?
पं. टोडरमल - परद्रव्य का निमित्त मिटने की अपेक्षा से व्रत-शील-संयमादि को मोक्षमार्ग कहा, सो इन्हीं को मोक्षमार्ग नहीं मान लेना, क्योंकि परद्रव्य का ग्रहण-त्याग आत्मा के हो तो आत्मा परद्रव्य का कर्ता-हर्ता हो जावे। परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्य के आधीन हैं नहीं। अतः आत्मा अपने रागादिक को त्याग कर वीतरागी होता हैं; निश्चय से वीतराग भाव ही मोक्षमार्ग हैं। १. पर (निमित्त) की ओर का लक्ष छुड़ाने के लिए।
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