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अनादिकाल से यह जीव निश्चय षट्कारक को भूलकर अपने विकल्प द्वारा मात्र व्यवहार षट्कारक का अवलंबन करता आ रहा हैं, इसलिए वह संसार का पात्र बना हुआ हैं, जब वह निश्चय षट्कारक का यथार्थ निर्णय करके पुरुषार्थ द्वारा अपना त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव का आश्रय लेकर शुद्धात्मानुभूति प्रगट करता हैं तब मोक्षमार्ग का प्रारंभ होता हैं । अतः जीवन संशोधन में निश्चय षट्कारक का सम्यग्ज्ञान करना कार्यकारी हैं।
यहाँ यह कहा गया है कि निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकता का संबंध नहीं हैं। अतः शुद्धात्म स्वभाव की प्राप्ति के लिए सामग्री ( बाह्य साधन ) ढूंढने की व्यग्रता से जीव ( व्यर्थ ही ) परतंत्र होते हैं ।
जिज्ञासु -
आज आपने हमें निश्चय और व्यवहार षट्कारकों के सम्बन्ध में बताया इससे हमें बहुत लाभ मिला, पर एक बात समझ में नहीं आई कि आपने कारक छह ही क्यों बताए ? हमने तो सुना था कि कारक आठ होते हैं । संबंध और संबोधन को कारक क्यों नहीं कहा ?
प्रवचनकार
संबोधन का तो कारक होने का प्रश्न ही नहीं उठता, पर संबंध भी कारक नहीं हैं। इन दोनों का क्रिया से कोई सम्बन्ध नही हैं। जो किसी न किसी रूप में क्रिया-व्यापार के प्रति प्रयोजक होता हैं उसे ही कारक कहा जाता हैं । संबंध और संबोधन क्रिया के प्रति प्रयोजक नहीं हैं, अत: इन्हें कारको में नहीं लिया गया हैं ।
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षट्कारक व्यवस्था को समझ कर पर से दृष्टि हठाकर प्रात्मकेन्द्रित होने का अभ्यास रखना! तुम्हारा कल्याण होगा !!
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