Book Title: Tattvagyan Pathmala 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 64
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कभी कदाचित् भोजन का विकल्प उठता तो अनेक अटपटी प्रतिज्ञाएँ लेकर वे भोजन के लिए समीपस्थ नगर की ओर आते। यदि कोई श्रावक उनकी प्रतिज्ञाओं के अनुरूप शुद्ध, सात्त्विक आहार नवधाभक्तिपूर्वक देता तो प्रत्यन्त सावधानीपूर्वक खड़े-खड़े निरीह भाव से आहार ग्रहण कर शीघ्र वन को वापिस चले जाते थे। मुनिराज महावीर का आहार एक बार अति विपन्नावस्था को प्राप्त सती चंदनबाला के हाथ से भी हुआ था । इस प्रकार अन्तर्बाह्य घोर तपश्चरण करते बारह वर्ष बीत गए । बयालीस वर्ष की अवस्था में वैसाख शुक्ला दशमी के दिन आत्म-निमग्नता की दशा में उन्होंने अन्तर में विद्यमान सूक्ष्म राग का भी प्रभाव कर पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त कर ली। पूर्ण वीतरागता प्राप्त होते ही उन्हें परिपूर्ण ज्ञान ( केवलज्ञान ) की भी प्राप्ति हुई। मोह-राग-द्वेषरूपी शत्रुओं को पूर्णतया जीत लेने से वे सच्चे महावीर बने। पूर्ण वीतरागी और सर्वज्ञ होने से वे भगवान कहलाए। उसी समय तीर्थंकर नामक महा पुण्योदय से उन्हें तीर्थंकर पद प्राप्त हुआ और वे तीर्थंकर भगवान महावीर के रूप में विश्रुत हुए। उनका उपदेश श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन प्रारंभ हुआ । यही कारण है इस दिन सारे भारतवर्ष में वीरशासन जयन्ती मनाई जाती हैं । उनका तत्त्वोपदेश होने के लिए इन्द्र की आज्ञा से कुबेर समवशरण की रचना की । तीर्थंकर की धर्मसभा को ' समवशरण कहा जाता हैं । उनकी धर्मसभा में प्रत्येक प्राणी को जाने का अधिकार प्राप्त था। छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं था। जिसका प्रचार अहिंसक है, जिसने विचार में वस्तु-तत्त्व को स्पर्श किया है, तथा जो अपने में उतर चुका है, चाहे वह चांडाल ही क्यों न हों; वह मानव ही नहीं, देव से भी बढ़ कर है । कहा भी हैं : सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहजम्। देवा देवं विदुर्भस्मगूढ़ांगारान्तरौजसम् ।। उनकी धर्मसभा में राजा - रंक, गरीब-अमीर, गोरे-काले सब मानव एक साथ बैठ कर धर्म-श्रवण करते थे । यहाँ तक कि उसमें मानवों-देवों के साथ १. आचार्य समन्तभद्र : रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक २८ " ६२ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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