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आगम के आधार एवं धर्मतीर्थ को चलाने वाले होने से भी आपकी महानता सिद्ध नहीं होती; क्योंकि शास्त्रों को बनाने वाले और संप्रदाय - पंथ रूप तीर्थो को चलाने वाले अनेक हैं और उन सब के वचन प्रायः परस्पर विरोधी हैं । परस्पर विरोधी वचनों वाले सब तो प्राप्त हो नहीं सकते ? उनमें से कोई एक ही प्राप्त होगा ।। ३।।
दोषावरणयोर्हानि,
क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो, बहिरन्तर्मलक्षयः
।।४।।
हे भगवन्! आपकी महानता तो वीतरागता और सर्वज्ञता के कारण ही हैं। वीतरागता और सर्वज्ञता असंभव नहीं हैं। मोह, राग, द्वेषादि दोष और ज्ञानावरणादि आवरणों का संपूर्ण अभाव संभव हैं, क्योंकि इनकी हानि क्रमशः होती देखी जाती हैं। जिस प्रकार लोक में अशुद्ध कनक - पाषाणादि में स्वहेतुत्रों से अर्थात् अग्नितापादि से अंतर्बाह्य मल का प्रभाव होकर स्वर्ण की शुद्धता होती देखी जाती हैं, उसी प्रकार शुद्धोपयोगरूप ध्यानाग्नि के ताप से किसी प्रात्मा के दोषावरण की हानि होकर वीतरागता और सर्वज्ञता प्रगट होना संभव हैं । ।। ४।।
सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः
निःशेषाऽस्त्यतिशायनात् ।
प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा ।
रिति सर्वज्ञसंस्थितिः ।। ५ ।।
परमाणु आदि सूक्ष्म, राम प्रादिक अंतरित एवं मेरु आदि दूरवर्ती पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि वे अनुमान से जाने जाते हैं। जो-जो अनुमान से जाने जाते हैं वे किसी के प्रत्यक्ष भी होते हैं। जैसे दूरस्थ अग्नि का हम धूम देखकर अनुमान कर लेते हैं तो कोई उसे प्रत्यक्ष भी जानता हैं। उसी प्रकार सूक्ष्म, अंतरित और दूरवर्ती पदार्थो को हम अनुमान से जानते हैं तो कोई उन्हें प्रत्यक्ष भी जान सकता हैं। इस प्रकार सामान्य से सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध होती हैं ।। ५ ।।
अनुमेयत्वतोऽग्न्यादि
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