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इस स्तोत्र का विषय स्तुति की शैली में प्राप्त के सच्चे स्वरूप की व्याख्या करना हैं। यह व्यंग के रूप में लिखा गया हैं। इसके व्यंगार्थ को स्पष्ट करते प्राचार्य विद्यानंदि ने लिखा हैं :
“ मानो भगवान (आप्त) ने साक्षात् समन्तभद्राचार्य से पूछा कि हे समन्तभद्र! आचार्य उमास्वामी ने महाशास्त्र 'तत्त्वार्थसूत्र' के आदि में हमारा स्तवन अतिशय रहित गुणों से ही क्यों किया, जब कि हममें अनेक सातिशय गुण विद्यमान हैं। इसके उत्तर में समन्तभद्र ने यह 'देवागम स्तोत्र 'लिखा।"
देवागम स्तोत्र (आप्तमीमांसा) देवागमनभोयान -
__चामरादिविभूतयः । मायाविष्वपि दृष्यन्ते
नातस्त्वमसि नो महान ।।१।। हे भगवन् ! आप हमारी दृष्टि में मात्र इसलिये महान नही हों कि आपके दर्शनार्थ देवगण आते हैं, आपका गमन आकाश में होता हैं, और चवर-छत्रादि विभूतियों से विभूषित हो; क्योकि ये सब तो मायावियों में भी देखे जाते हैं ।।१।।
अध्यात्म बहिरप्येष,
विग्रहादि महोदयः । दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्व
__ प्यस्ति रागादिमत्सु सः ।।२।। इसी प्रकार शरीरादि संबंधी अंतरंग व बहिरंग अतिशय (विशेषताएँ ) यद्यपि मायावियों के नहीं पाये जाते हैं तथापि रागादि भावों से युक्त देवताओं के पाये जाते हैं, अतः इस कारण भी आप हमारी दृष्टि में महान नहीं हो सकते।।२।।
तीर्थकृत्समयानां च
परस्परविरोधतः । सर्वेषामाप्तता नास्ति
काश्चिदेव भवेद्गुरुः ।।३।।
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