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विरोधान्नोभयैकान्तं,
स्याद्वादन्यायविद्विषाम्। अवाच्यतैकान्तेप्युक्ति
र्नाऽवाच्यमिति युज्यते ।।१३।। यदि कोई भावैकान्त और प्रभावैकान्त में प्राप्त दोषों से बचने के लिए उभयैकान्त स्वीकार करे तो भी स्याद्वादन्याय के विद्वेषियों के मत में, दोंनो (भावैकान्त और अभावैकान्त) के परस्पर विरोध होने से दोनों में पृथक्-पृथक् कथित दोष पाये बिना नहीं रहेगें। यदि उक्त परेशानी से बचने के लिए कोई अवाच्यैकान्त स्वीकार करे तो ‘अवाच्य' कहने पर वस्तु ‘अवाच्य' शब्द से 'वाच्य' हो जावेगी।। १३ ।।
कथंचित्ते सदेवेष्टं
कथंचिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च
नययोगान्न सर्वथा ।।१४।। अतः हे भगवन् ! आपका बताया वस्तुस्वरूप कथंचित् सत् (भावस्वरूप), कथंचित् असत् ( अभावरूप), कथंचित् उभय (भावाभावरूप), कथंचित् प्रवक्तव्य, कथंचित् सद्ग्रवक्तव्य, कथंचित् असद्ग्रवक्तव्य और कथंचित् सद्-असद् प्रवक्तव्य हैं; पर यह सब सप्तभंग नयों की अपेक्षा से ही हैं, सर्वथा नहीं ।। १४ ।।
सदेव सर्व को नेच्छेत्
स्वरुपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न,
चेन्न व्यवतिष्ठते ।।१४।। स्वरूपादि चतुष्टय (स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, और स्वभाव ) की अपेक्षा वस्तु के सद्भाव को कौन स्वीकार नहीं करेगा ? उसी प्रकार पररूप चतुष्टय ( परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव) की अपेक्षा कौन प्रभाव को स्वीकार
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