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सभी लोग घबड़ाकर यहाँ-वहाँ भागने लगे, पर राजकुमार वर्धमान ने अपना धैर्य नहीं खोया तथा शक्ति और युक्ति से शीघ्र ही गजराज पर काबू पा लिया। राजकुमार वर्धमान की वीरता व धैर्य की चर्चा नगर में सर्वत्र होने लगी।
वे प्रतिभासंपन्न राजकुमार थे। बड़ी-बड़ी समस्याओं का समाधान चुटकियों में कर दिया करते थे। वे शान्त प्रकृति के तो थे ही, युवावस्था में प्रवेश करते ही उनकी गंभीरता और बढ़ गई। वे एकान्तप्रिय हो गये। वे निरन्तर चिन्तवन में ही लगे रहते थे और गूढ़ तत्त्वचर्चाएँ किया करते थे। तत्त्व-संबंधी बड़ी से बड़ी शंकाएँ तत्व-जिज्ञासु उनसे करते थे और बातो ही बातो में वे उनका समाधान कर देते थे। बहुत-सी शंकाओं का समाधान तो उनकी सौम्य प्राकृति ही कर देती थी। बड़े-बड़े ऋषिगणों की शंकाएँ भी उनके दर्शन मात्र से शाँत हो जाती थीं। वे शंकालो का समाधान न करते थे वरन् स्वयं समाधान थे।
एक दिन वे राजमहल की चौथी मंजिल पर एकान्त में विचार-मग्न बैठे थे। उनके बाल-साथी उनसे मिलने को आए और माँ त्रिशला से पूछने लगे'वर्धमान' कहा है ? गृहकार्य में संलग्न माँ ने सहज ही कह दिया- ऊपर'। सभी बालक ऊपर को दौड़े और हाफते हुए सातवीं मंजिल पर पहुँचे, पर वहाँ वर्धमान को न पाया। जब उन्होनें स्वाध्याय मे संलग्न राजा सिद्धार्थ से वर्धमान के संबंध में पूछा तो उन्होने बिना गर्दन उठाएँ ही कह दिया - 'नीचे'। माँ और पिता के परस्पर विरुद्ध कथनों को सुनकर बालक असमंजस में पड़ गए। अन्ततः उन्होंने एक-एक मंजिल खोजना आरंभ किया और चौथी मंजिल पर वर्धमान को विचारमग्न बैठे पाया। सब साथीयों ने उलाहने के स्वर में कहा, 'तुम यहाँ छिपे-छिपे दार्शनिको की सी मुद्रा में बैठे हो और हमने सातों मंजिले छान डालीं'। 'माँ से क्यों नहीं पूछा?' वर्धमान ने सहज प्रश्न किया। साथी बोले-“पूछने से ही तो सब कुछ गड़बड़ हुआ” माँ कहती है'ऊपर' और पिताजी 'नीचे'। कहाँ खोजें ? कौन सत्य है ? वर्धमान ने कहा " दोनों सत्य हैं, मैं चौंथी मंजिल पर होने से माँ की अपेक्षा 'ऊपर' और पिताजी की अपेक्षा 'नीचे' हूँ क्योंकि माँ पहिली मंजिल पर और पिताजी सातवीं मंजिल पर हैं। इतना भी नहीं समझते ? ऊपर-नीचे की स्थिति सापेक्ष हैं। बिना अपेक्षा ऊपर-नीचे का प्रश्न ही नहीं उठता। वस्तु की
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